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मूलार्थ-अब इससे आगे भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की जिस प्रकार की तेजोलेश्या है, उसको मैं कहूंगा।
टीका-प्रथम की तीन लेश्याएं तो भवनपति और वाणव्यंतर देवों में होती हैं, परन्तु तेजोलेश्या का सद्भाव तो उक्त चारों देव-निकायों में होता है। अब इसी विषय का वर्णन करते हैं, यथा
पलिओवमं जहन्ना, उक्कोसा सागरा उ दुन्नहिया । पलियमसंखेज्जेणं, होइ भागेण तेऊए ॥ ५२ ॥
पल्योपमं जघन्या, उत्कृष्टा सागरोपमे तु द्वयधिके । ...
पल्योपमासंख्येयेन, भवति भागेन तैजस्याः ॥ ५२ ॥ पदार्थान्वयः-पलिओवम-पल्योपम-प्रमाण, जहन्ना-जघन्य स्थिति, उक्कोसा-उत्कृष्ट, दुन्न-दो, सागरा-सागरोपम, पलियं-पल्योपम के, असंखेजेणं-असंख्यातवें, भागेण-भाग से, अहिया-अधिक, तेऊए-तेजोलेश्या की स्थिति, होइ-होती है।
मूलार्थ-तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की होती है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भागसहित दो सागरोपम की होती है।
टीका-तेजोलेश्या की यह स्थिति सामान्यतया वैमानिक देवों की अपेक्षा से कही गई है कि यह लेश्या दूसरे देवलोक-पर्यन्त ही होती है तथा प्रथम एवं दूसरे देवलोक में एतावन्मात्र ही आयु का सद्भाव है। उपलक्षण से भवनपति और व्यन्तरदेवों में तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है तथा भवनपतियों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की और व्यन्तरों की एक पल्योपम की होती है, परन्तु ज्योतिषीदेवों की तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति, पल्योपम के आठवें भाग जितनी और उत्कृष्ट स्थिति लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। इस प्रकार उपलक्षण से तेजोलेश्या की स्थिति जान लेना
चाहिए।
अब फिर कहते हैं
दसवाससहस्साइं, तेऊए ठिई जहन्निया होइ । दुन्नुदही पलिओवम, असंखभागं च उक्कोसा ॥ ५३ ॥ दशवर्षसहस्राणि-तेजोलेश्यायाः स्थितिर्जघन्यका भवति ।
द्वयुदधिपल्योपम, असंख्यभागाधिका चोत्कृष्टा ॥ ५३ ॥ __पदार्थान्वयः-दसवाससहस्साइं-दस हजार वर्ष, तेऊए-तेजोलेश्या की, जहन्निया-जघन्य, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, दुन्नुदही-दो सागर, पलिओवम-पल्योपम के, असंखभागं-असंख्यातवां
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३६] लेसन्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयंणं