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________________ है, सा उ-वही, समयं-एक समय, अब्भहिया-अधिक, जहन्नेणं-जघन्य, नीलाए-नीललेश्या की स्थिति होती है, च-फिर, उक्कोसा-उत्कृष्ट स्थिति, पलियं-पल्योपम का, असंखं-असंख्यातवां भागमात्र होती है, खलु-वाक्यालंकार में है। मूलार्थ-जितनी उत्कृष्ट स्थिति कृष्णलेश्या की कही गई है उतनी ही, किन्तु एक समय अधिक जघन्य स्थिति नीललेश्या की है और नीललेश्या की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी है। टीका-पूर्व में जो पल्योपम का असंख्यातवां भाग कथन किया गया है, उससे यह भाग बृहत्तर समझना चाहिए, क्योंकि असंख्येय के भी असंख्येय भाग होते हैं। अब कापोतलेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं जा नीलाए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं काऊए, पलियमसंखं च उक्कोसा ॥ ५० ॥ या नीलायाः स्थितिः खलु, उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । .. जघन्येन कापोतायाः, पल्योपमासंख्येयभागा चोत्कृष्टा ॥ ५० ॥ पदार्थान्वयः-जा-ज़ो; नीलाए-नीललेश्या की, ठिई-स्थिति, उक्कोसा-उत्कृष्ट कही गई है, सा उ-वही, समयं-एक समय, अब्भहिया-अधिक, जहन्नेणं-जघन्य स्थिति, काऊए-कापोतलेश्या की होती है, च-और, उक्कोसा-उत्कृष्ट स्थिति, पलियं-पल्योपम के, असंखं-असंख्येय भाग प्रमाण होती है। मूलार्थ-जितनी उत्कृष्ट स्थिति नीललेश्या की होती है, उससे एक समय अधिक वही जघन्य स्थिति कापोतलेश्या की है तथा कापोतलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। टीका-यह सब स्थिति भवनपति और व्यन्तर देवों की अपेक्षा से ही कही गई है। अब तेजोलेश्या के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा तेण परं वोच्छामि, तेऊलेसा जहा सुरगणाणं । भवणवइ-वाणमंतर, जोइस-वेमाणियाणं च ॥५१ ॥ ततः परं वक्ष्यामि, तेजोलेश्याया यथा सुरगणानाम् । भवनपति-वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकानां च ॥ ५१ ॥ पदार्थान्वयः-तेण. परं-इसके अनन्तर, जहा-जिस प्रकार की, भवणवइ-भवनपति, वाणमंतर-वाणव्यंतर, जोइस-ज्योतिषी, वेमाणियाणं-वैमानिक, सुरगणाणं-देवगणों की, तेऊलेसा-तेजोलेश्या है-उसको, वोच्छामि-मैं कहूंगा। तत 'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३३५] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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