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पदार्थान्वयः-एसा-यह, तिरिय-तिर्यंच-और, नराणं-मनुष्यों की, लेसाणं-लेश्याओं की, ठिई-स्थिति, उ-तो, वण्णिया-वर्णन कर दी गई, होइ-है, तेण परं-इसके अनन्तर अब, देवाणं-देवों की, लेसाण-लेश्याओं की, ठिई-स्थिति को, वोच्छामि-कहूंगा, उ-पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-तिर्यंच और मनुष्यों की जो लेश्याएं हैं, उनकी स्थिति का तो यह वर्णन मैंने कर दिया है, अब इसके पश्चात् देवों की लेश्या-स्थिति को मैं कहूंगा। ___टीका-आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य ! मनुष्य और तिर्यञ्च गति में प्राप्त होने वाली लेश्याओं की जघन्य अर्थात् कम से कम और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन तो मैंने कर दिया है, अब मैं देवगति में प्राप्त होने वाली लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूंगा, तुम सावधान होकर सुनो। यही इस गाथा का भाव है। अब देवगति में प्राप्त होने वाली कृष्णलेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं, यथा
दसवाससहस्साइं, किण्हाए ठिई जहन्निया होइ । पलियमसंखिज्जइमो, उक्कोसो होइ किण्हाए ॥ ४८ ॥ दशवर्षसहस्त्राणि, कृष्णायाः स्थितिर्जघन्यका भवति ।
पल्योपमासंख्येयतमभागा, उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः ॥ ४८ ॥ पदार्थान्वयः-दसवाससहस्साइं-दश सहस्र वर्ष की, जहन्निया-जघन्य, ठिई-स्थिति, किण्हाए-कृष्णलेश्या की, होइ-होती है, पलियं-पल्योपम के, असंखिज्जइमो-असंख्येयतम भाग प्रमाण, उक्कोसो-उत्कृष्ट स्थिति, किण्हाए-कृष्णलेश्या की, होइ-होती है। ___ मूलार्थ-कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की होती है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
टीका-भवनपति और व्यन्तर-देवों में कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भागमात्र है। यह स्मरणीय है कि कृष्णलेश्या का सद्भाव इन्हीं देवों में माना गया है और स्थिति भी इन देवों की मध्यम आयु की अपेक्षा से कही गई है। अब नीललेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं, यथा- .
जा किण्हाए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं नीलाए, पलियमसंखं च उक्कोसा ॥ ४९ ॥
या कृष्णायाः स्थितिः खलु, उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका ।
जघन्येन नीलायाः, पल्योपमासंख्येयभागा चोत्कृष्टा ॥ ४९ ॥ पदार्थान्वयः-जा-जो, किण्हाए-कृष्णलेश्या की, ठिई-स्थिति, उक्कोसा-उत्कृष्ट कही गई
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३३४] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं