SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गई है और उत्कृष्ट स्थिति पल्य के असंख्यातवें भागसहित तीन सागर की है। यह स्थिति, तीसरे 'बालुकाप्रभा' नामक नरकस्थान के उपरितन प्रस्तट की अपेक्षा से कथन की गई है, परन्तु प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट में तो न्यून से न्यून स्थिति दस हजार वर्ष की ही होती है। प्रथम नरक में कापोतलेश्या का ही सद्भाव होता है, अतः जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कापोतलेश्या की ही प्रतिपादित की गई है। अब नीललेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं तिण्णुदहीपलिओवम, असंखभागो जहन्नेण नीलठिई । दसउदहीपलिओवम, असंखभागं च उक्कोसा ॥ ४२ ॥ त्र्युदधिपल्योपमा, असंख्यभागाधिका जघन्येन नीलस्थितिः । दशोदधिपल्योपमा, असंख्यभागाधिका चोत्कृष्टा ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयः-तिण्णुदही-तीन सागरोपम, पलिओवम-पल्योपम का, असंखभागो-असंख्यातवां भाग अधिक, जहन्नेण-जघन्य, नील-नीललेश्या की, ठिई-स्थिति होती है, दस-दश, उदही-सागरोपम, पलिओवम-पल्योपम के, असंखभागं-असंख्यातवें भाग सहित, उक्कोसा-उत्कृष्ट स्थिति होती है। मूलार्थ-नीललेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भागसहित तीन सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भागसहित दश सांगरोपम की होती है। - टीका-यहां पर नीललेश्या की जघन्य स्थिति का जो वर्णन है, वह बालुका-प्रभा नरक की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट स्थिति का जो कथन है, वह धूम्र-प्रभा नरक के ऊपर के प्रस्तट की अपेक्षा से किया गया है। अब कृष्णलेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं दसउदहीपलिओवम, असंखभागं जहन्निया होइ । तेत्तीससागराइं, उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ ४३ ॥ दशोदधिपल्योपमा, असंख्यभागाधिका जघन्यका भवति । त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा, उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः ॥ ४३ ॥ पदार्थान्वयः-दसउदही-दश सागरोपम, पलिओवम-पल्योपम के, असंखभागं-असंख्यातवें भाग अधिक, जहन्निया-जघन्य स्थिति, होइ-होती है, किण्हाए-कृष्णलेश्या की, उक्कोसा-उत्कृष्ट स्थिति, तेत्तीससागराइं-तेंतीस सागरोपम, होइ-होती है। मूलार्थ-कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दश सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागरोपम की होती है। ___टीका-कृष्णलेश्या की इस जघन्य स्थिति का वर्णन धूम्रप्रभा के कतिपय नारकियों की अपेक्षा से किया गया और उत्कृष्ट स्थिति का उल्लेख सातवें नरक की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि वहां - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३१] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy