SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की ही मानी गई है। यह सब कथन द्रव्य लेश्याओं के विषय में जानना चाहिए। भाव से तो नारकी और देवों को छहों लेश्याओं का स्पर्श हो जाता है। अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार और अन्य विषय का उपक्रम करते हुए फिर कहते हैं एसा नेरइयाणं, लेसाण ठिई उ वणिया होइ । तेण परं वोच्छामि, तिरियमणुस्साण देवाणं ॥ ४४ ॥ एषा नैरयिकाणां, लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णिता भवति । ततः परं वक्ष्यामि, तिर्यङ्मनुष्याणां देवानाम् ॥ ४४ ॥ पदार्थान्वयः-एसा-यह, नेरइयाणं-नारकियों की, लेसाण ठिई-लेश्याओं की स्थिति, वणिया-वर्णन की गई, होइ-है, तेण परं-इसके आगे, तिरिय-तिर्यक्-पशु आदि, मणुस्साण-मनुष्य और, देवाणं-देवों की स्थिति को, वोच्छामि-मैं कहूंगा।। मूलार्थ-यह लेश्याओं की स्थिति नरक के जीवों की कही गई है, अब इसके आगे तिर्यंच-पशु, मनुष्य और देवों की लेश्यास्थिति को मैं कहूंगा। टीका-आचार्य कहते हैं कि यह तो नारकियों की लेश्यास्थिति का वर्णन हुआ है, अब इसके अनन्तर मैं पशु, मनुष्य और देवों की लेश्या-स्थिति का वर्णन करता हूं, उसे आप सावधान होकर श्रवण करें। अब इसी विषय में कहते हैं, यथा अंतोमुहुत्तमद्धं लेसाण ठिई जहि-जहिं जा. उ । तिरियाण नराणं वा, वज्जित्ता केवलं लेसं ॥ ४५ ॥ अन्तर्मुहूर्ताद्धा, लेश्यानां स्थितिर्यस्मिन् यस्मिन् या तु । तिरश्चां नराणां वा, वर्जयित्वा केवलां लेश्याम् ॥ ४५ ॥ पदार्थान्वयः-अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, अद्धं-कालप्रमाण, लेसाण-लेश्याओं की, ठिई-स्थिति, जहिं जहिं-जहां-जहां, जा-जो (कृष्णादि लेश्याएं हैं), तिरियाण-तिर्यंचों, वा-अथवा, नराणं-नरों की कही हैं, केवलं-शुद्ध, लेसं-लेश्या को, वज्जित्ता-छोड़कर, उ-पादपूर्ति में है। मूलार्थ-तिर्यंच और मनुष्यों में शुक्ललेश्या को छोड़कर अवशिष्ट सब लेश्याओं की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त की है। टीका-प्रस्तुत गाथा में तिर्यंच और मनुष्य-गति में प्राप्त होने वाली लेश्याओं की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है, तथा च तिर्यंच और मनुष्य-गति में अर्थात् एकेन्द्रिय [पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति], द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच तथा संमूछिम और गर्भज मनुष्यों में जितनी लेश्याएं होती हैं, उनमें शुक्ल लेश्या को छोड़कर शेष लेश्याओं उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३२] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy