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अब प्रकृत विषय का उपसंहार करते हुए उत्तर ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का प्रस्ताव करते हुए कहते हैं, यथा
एसा खलु लेसाणं, ओहेण ठिई उ वणिया होइ । चउसु वि गईसु एत्तो, लेसाण ठिइं तु वोच्छामि ॥ ४० ॥
एषा खलु लेश्यानाम्, ओघेन स्थितिस्तु वर्णिता भवति ।
चतसृष्वपि गतिष्वितो, लेश्यानां स्थितिं तु वक्ष्यामि ॥ ४० ॥ पदार्थान्वयः-एसा-यह, खलु-निश्चय में, लेसाणं-लेश्याओं की, ठिई-स्थिति, ओहेण-सामान्यरूप से, वण्णिया-वर्णन की गई, होइ-है, एत्तो-इसके आगे, चउसु वि-चारों ही, गईसु-गतियों में, लेसाण-लेश्याओं की, ठिइं-स्थिति को, वोच्छामि-कहूंगा, उ-तु-पादपूर्ति में हैं।
मूलार्थ-यह लेश्याओं की स्थिति का सामान्यरूप से वर्णन किया गया है, अब इसके आगे मैं चार गतियों के विषय में लेश्याओं की [जघन्य और उत्कृष्ट ] स्थिति का वर्णन करूंगा।
टीका-प्रस्तुत गाथा में प्रतिपादित विषय का उपसंहार और प्रतिपाद्य विषय के उपक्रम का निर्देश किया गया है। आचार्य कहते हैं कि लेश्याओं की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का सामान्यरूप से तो वर्णन कर दिया गया है, परन्तु इससे नरकादि चारों गतियों में लेश्याओं की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का बोध नहीं हो सकता, इसलिए अब मैं इसके अनन्तर चारों गतियों में लेश्याओं की जो स्थिति हैं, उसका वर्णन करूंगा, तुम सावधान होकर श्रवण करो। ..
__ अब नरक-गतिविषयक लेश्याओं की स्थिति-वर्णन के प्रस्ताव में प्रथम कापोतलेश्या की स्थिति का उल्लेख करते हैं, यथा
दसवाससहस्साई, काऊए ठिई जहन्निया होइ । तिण्णुदहीपलिओवम, असंखभागं च उक्कोसा ॥ ४१ ॥ दशवर्षसहस्राणि, कापोतायाः स्थिंतिर्जघन्यका भवति ।
त्र्युदधिपल्योपमा, असंख्येयभागाधिका चोत्कृष्टा ॥ ४१ ॥ पदार्थान्वयः-दसवाससहस्साइं-दस वर्ष सहस्र अर्थात् दस हजार वर्ष, काऊए-कापोतलेश्या की, जहन्निया-जघन्य, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, तिण्णुदही-तीन सागरोपम, चऔर, पलिओवम-पल्योपम का, असंखभागं-असंख्यातवां भाग अधिक, उक्कोसा-उत्कृष्ट स्थिति होती है।
मूलार्थ-कापोतलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की होती है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भागसहित तीन सागरोपम की है।
टीका-रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में कापोतलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की मानी
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३०] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं