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________________ को भेदन करने वाला, दुष्ट वचन बोलने वाला, चोरी और असूया करने वाला है, वह व्यक्ति कापोतलेश्या से युक्त होता है। टीका-इन दोनों गाथाओं में कापोतलेश्या के लक्षणों का वर्णन किया गया है। जैसे कि वक्र - टेढ़ा बोलना और वक्र - विपरीत ही आचरण करना, कपट का व्यवहार करना, सरलता से रहित होना, अपने दोषों को छिपाने के लिए अनेक प्रकार के उपायों को सोचना, हर एक प्रवृत्ति में छल का व्यवहार करना [व्याजतः प्रवृत्तेः], विपरीतदृष्टि और अनार्यता के भाव रखना, इसी प्रकार मर्मस्पर्शी भाषा का प्रयोग करना, अर्थात् ऐसी वाणी बोलना कि जिसके सुनने से दूसरों का हृदय विदीर्ण हो जाए तथा राग-द्वेष के वर्द्धक वचनों का प्रयोग करना, चोरी करना और मत्सरी होना, ये सब लक्षण कापोतलेश्या के कहे गए हैं। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति में ये लक्षण विद्यमान हों, उसमें कापोतलेश्या की परिणति होती है। दूसरे की सम्पत्ति को देखकर जलने वाला पुरुष मत्सरी कहलाता है । [ परसंपदसहनं बित्तात्यागश्च वत्सरो ज्ञेयः ] अर्थात् पराई विभूति को सहन न करना तथा धन का त्याग अर्थात् दान न करना, मत्सर कहलाता है और मत्सरयुक्त व्यक्ति को मत्सरी कहते हैं । सारांश यह है कि इन लक्षणों से युक्त व्यक्ति कापोतलेश्या के परिणामों वाला होता है। अब तेजोलेश्या के लक्षण का वर्णन करते हैं - नीयावित्ती अचवलं, अमाई अकुऊहले । विणीयविणए दंते, जोगवं उवहांणवं ॥ २७ ॥ पियधम्मे दढधम्मे ऽवज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो, तेऊलेसं तु परिणमे ॥ २८ ॥ नीचैर्वृत्तिरचपलः, अमाय्यकुतूहल: । विनीतविनयो दान्तः, योगवानुपधानवान् ॥ २७ ॥ प्रियधर्मा दृढधर्मा, अवद्य भीरुर्हितैषिकः । एतद्योगसमायुक्तः, तेजोलेश्यां तु परिणमेत् ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः - नीयावित्ती- नम्रतायुक्त, अचवले-च -चपलता रहित, अमाई - माया से रहित, अकुऊहले-कुतूहल से रहित, विणीयविणए - विनययुक्त अर्थात् विनीत, दंते - दान्त - इन्द्रियों का दमन करने वाला, जोगवं - स्वाध्यायादि करने वाला, उवहाणवं उपधान तप को करने वाला,' पियधम्मे-धर्मप्रेमी, दढधम्म-धर्म में दृढ़ रहने वाला, अवज्जभीरू - पापभीरु अर्थात् पाप से डरने वाला, हिएसए - हितैषी - मुक्तिपथ का गवेषक, एय - इन, जोगसमाउत्तो - लक्षणों से युक्त जीव में, तेलेसं - तेजोलेश्या का परिणमे परिणाम होता है, तु-प्राग्वत् । मूलार्थ -नम्रता का बर्ताव करने वाला, चपलता से रहित, अमायी माया अर्थात् छलकपट - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३२२] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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