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से रहित, अकुतूहली-कुतूहल से पृथक् रहने वाला, परम विनयवान्, इन्द्रियों का दमन करने वाला, स्वाध्याय में रत. और उपधान आदि तप को करने वाला, धर्म में प्रेम और दृढ़ता रखने वाला, पापभीरु और सब का हित चाहने वाला पुरुष तेजोलेश्या के परिणामों से युक्त होता है।
टीका-उक्त गाथाद्वय में तेजोलेश्या के लक्षण वर्णन किए गए हैं। जो व्यक्ति तेजोलेश्या के परिणाम वाला होता है वह मन, वचन और शरीर से सदा नम्रता का बर्ताव करता है, अर्थात् किसी प्रकार का अहंकार नहीं करता तथा अचपल अर्थात् चंचलता से रहित होता है। छल-कपट का त्यागी तथा कुतूहल से रहित अर्थात् किसी से मजाक (उपहास) भी नहीं करता और विनयादि गुणों से युक्त होता है। तात्पर्य यह है कि वह वद्धों और गरुजनों की सेवा में प्रवृत्त रहता है। इन्द्रियों का दमन करने वाला, वाचना-पृच्छना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय में लगा रहने वाला और श्रुत की आराधना के लिए योगों का उद्वहन करने वाला, धर्मप्रेमी अर्थात् धर्मानुष्ठान में रुचि रखने वाला, प्रतिज्ञापालक, पापभीरु और मोक्षमार्ग की गवेषणा करने वाला होता है।
कुतूहल शब्द में इन्द्रजाल आदि कौतुकजनक लौकिक विद्याओं का भी समावेश कर लेना चाहिए। तपश्चर्यापूर्वक किया गया श्रुत का अध्ययन सर्व प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करने वाला माना गया है। सारांश यह है कि ये उक्त लक्षण तेजोलेश्या के बोधक हैं, अर्थात् जिस व्यक्ति में ये उक्त लक्षण पाए जाएं, वहां पर तेजोलेश्या का सहज ही में अनुमान कर लेना चाहिए। अब पद्मलेश्या के लक्षण कहते हैं, यथा
पयणुकोह-माणे य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ २९ ॥ तहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥ ३० ॥ प्रतनुक्रोधमानश्च, माया लोभश्च प्रतनुकः । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान् ॥ २९ ॥ तथा प्रतनुवादी च, उपशान्तो जितेन्द्रियः ।
एतद्योगसमायुक्तः, पद्मलेश्यां तु परिणमेत् ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः-पयणु-सूक्ष्म-पतला, कोह-माणे य-क्रोध और मान हैं जिसके, माया-माया, य-और, लोभे-लोभ, पयणुए-अत्यन्त पतले, पसंतचित्ते-प्रसन्नचित्त, दंतप्पा-आत्मा को जिसने वश किया है, जोगवं-योगों वाला, उवहाणवं-उपधान वाला, तहा-तथा, पयणुवाई-अल्प भाषण करने वाला, य-और, उवसंते-उपशान्त तथा, जिइंदिए-जितेन्द्रिय, एय-इन, जोगसमाउत्तो-लक्षणों से युक्त, पम्हलेसं-पद्मलेश्या को, परिणमे-परिणत होता है, तु-प्राग्वत्।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३२३] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं