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________________ किए हुए ग्रन्थिकसत्त्वातीत- अभव्य जीवों से अनन्तगुणा अधिक होते हैं, तथा सिद्धों से ये कर्म-परमाणु अनन्तगुणा न्यून होते हैं। तात्पर्य यह है कि एक समय में सब कर्मों के परमाणु अभव्यों से अधिक और सिद्धों से न्यून होते हैं अर्थात् सिद्ध उनसे अनन्तगुणा अधिक हैं। यद्यपि कर्म - परमाणु संख्या में अनन्त हैं तथा अभव्यों से अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग में परमाणु- संख्या में होते हैं। यह सब कथन एक समय की अपेक्षा से किया गया है। सूत्रकर्ता ने अभव्य आत्मा के लिए जो ग्रन्थिक-सत्त्व नाम दिया है उसका कारण यह है कि उन आत्माओं की राग-द्वेष की गांठ स्वभाव से ही ऐसी कठिन पड़ी हुई होती है कि वे किसी समय में भी उसका भेदन नहीं कर सकतीं । कारण यह है कि इस गांठ का बन्ध अनादि - अनन्त होता है तथा भव्य जीवों की जो कर्म-ग्रन्थि है वह अनादि - सान्त मानी गई है। इसीलिए भव्य जीव मोक्ष के साधनों में प्रवृत्त होने पर उसकी प्राप्ति के योग्य बनते हैं और ग्रन्थि का भेदन करके कषायों से मुक्त होते हुए अन्त में सर्व कर्मों का विनाश करके मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। प्रदेशाग्र यह परमाणु संख्या का ही नाम- विशेष है। अब क्षेत्र के विषय में कहते हैं सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥ १८ ॥ सर्वजीवानां कर्म तु संग्रहे षड्दिशागतम् । सर्वेष्वपि प्रदेशेषु, सर्वं सर्वेण बद्धकम् ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः-सव्व-सब, जीवाण - जीवों के, कम्मं - कर्माणु, संगहे - संग्रहण के योग्य, छद्दिसागयं-छहों दिशाओं में स्थित हैं, सव्वेसु वि-सभी, पएसेसु- प्रदेशों में, सव्वं - सब - ज्ञानावरणादि कर्म, सव्वेण-सब आत्म-प्रदेशों के द्वारा, बद्धगं-बद्ध हैं, तु - पादपूरणार्थ है । मूलार्थ - संग्रह करने के योग्य सब जीवों के कर्माणु सब आत्म-प्र बद्ध हैं। -प्रदेशों में सब प्रकार से टीका - प्रस्तुत गाथा में कर्माणुओं के संग्रह का प्रकार बताया गया है। सब जीवों के कर्माणु पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर, तथा नीचे ऊपर सभी दिशाओं में व्याप्त हैं। उनका संग्रह भी सभी दिशाओं से किया जा सकता है। वे कर्माणु सब आत्म- प्रदेशों में बद्ध होते हैं, अर्थात् उनका आत्म-प्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की तरह सम्बन्ध हो जाता है। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के द्रव्य-कर्माणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने का कारण राग-द्वेष की परिणतिरूप भाव- कर्म या अध्यवसाय - विशेष है। उसी के द्वारा जितने आकाश क्षेत्र पर आत्म- प्रदेश अवगाहित होते हैं, उसी क्षेत्र की अपेक्षा से सब दिशाओं में कर्म-वर्गणाओं का संचय किया जा सकता है। जिस प्रकार प्रज्वलित हुई अग्नि अपने समीपवर्ती पदार्थों को भस्मसात् कर देती है, उसी प्रकार जितने आकाश - क्षेत्र में आत्म-प्रदेशों की अवगाहना होती है, अर्थात् जितने आकाश क्षेत्र में आत्म- प्रदेश फैले हुए होते हैं, उतने उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०२ ] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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