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________________ अब इस विषय में जानने योग्य अन्य आवश्यक बातों के वर्णन का प्रस्ताव करते हैं, यथा एयाओ मूलपयडीओ, उत्तराओ य आहिया । पएसग्गं खेत्तकाले य, भावं च उत्तरं सुण ॥ १६ ॥ एता मूलप्रकृतयः, उत्तराश्चाख्याताः । प्रदेशाग्रं क्षेत्रकालौ च, भावं चोत्तरं श्रृणु ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः-एयाओ-ये, मूलपयडीओ-मूल प्रकृतियां, य-और, उत्तराओ-उत्तर प्रकृतियां, आहिया-कही गई हैं, पएसग्गं-प्रदेशों का अग्र-प्रमाण, खेत्त-क्षेत्र, य-और, काले-काल, च-तथा, भावं-भाव, उत्तरं-इससे आगे, सुण-श्रवण कर। मूलार्थ-ये पूर्वोक्त कर्मों की मूल प्रकृतियां और उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं। हे शिष्य ! अब तू प्रदेशाग्र, क्षेत्रकाल और भाव से इनके स्वरूप को श्रवण कर। टीका-गुरु कहते हैं कि "हे शिष्य ! कर्मों की मूल प्रकृतियां-ज्ञानावरणीयादि और उत्तर प्रकृतियां-श्रुतावरणीयादि-का मैंने संक्षेप से कथन कर दिया है। अब इसके आगे तुम प्रदेशाग्र-परमाणुओं का परिमाण, क्षेत्रकाल और भाव के द्वारा किए जाने वाले निरूपण को सुनो। अभिप्राय यह है कि इस गाथा में एक समय में कितने कर्माणु एकत्रित किए जाते हैं, तथा वे किन दिशाओं में एकत्रित होते हैं, और उनकी उत्कृष्ट स्थिति कितनी एवं उनके रस का अनुभव कैसे होता है, इत्यादि प्रश्नों के निरूपण की प्रतिज्ञा करते हुए शिष्य को उनके श्रवण करने के लिए अभिमुख किया गया है। अब उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार प्रथम प्रदेशाग्र के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं । गंठियसत्ताईयं, अंतो सिद्धाण आहियं ॥ १७ ॥ — सर्वेषां चैव कर्मणां, प्रदेशाग्रमनन्तकम् । ग्रन्थिकसत्त्वातीतं, अन्तः सिद्धानामाख्यातम् ॥ १७ ॥ पदार्थान्वयः-सव्वेसिं-सभी, कम्माणं-कर्मों के, पएसग्गं-प्रदेशाग्र, अणंतगं-अनन्त हैं, गंठिय-ग्रन्थिक, सत्ताईयं-सत्त्वातीत, सिद्धाण-सिद्धों के, अंतो-अन्तर्वर्ती, आहियं-कथन किए गए हैं, च-पादपूर्ति में है। मूलार्थ-सभी कर्मों के परमाणु ग्रन्थिकसत्त्वातीत अभव्यात्माओं से अनन्तगुणा अधिक और सिद्धों के अन्तर्वर्ती कथन किए गए हैं। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में क्रम-प्राप्त प्रदेशाग्र का वर्णन किया गया है। यथा-यह जीवात्मा प्रतिसमय सात व आठ कर्म-वर्गणाओं का संचय करती है और कर्मों के वे सब परमाणु केवल एक समय में एकत्र उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३०१] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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