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________________ क्षेत्र पर से क्रर्माणुओं का संचय क्रिया जा सकता है तथा सब आत्म-प्रदेशों और सब कर्माणुओं का इस प्रकार पारस्परिक बन्धन हो जाता है जैसे लोहे की सांकल की कड़ियों का तथा मत्स्य पकड़ने के जाल की ग्रन्थियों का आपस में बन्ध होता है। इस विषय में इतना और ध्यान रखना चाहिए कि कदाचित् एकेन्द्रिय जीव तो तीन दिशाओं से भी कर्मों का संग्रह कर सकता है, परन्तु द्वीन्द्रियादि जीव तो निश्चय ही छहों दिशाओं में से कर्माणुओं का संचय करते हैं। "सव्वेसु वि" - यहां पर तृतीया के स्थान में सप्तमी का प्रयोग सुप - व्यत्यय को लेकर किया गया है। अब काल के विषय में कहते हैं, यथा उदहीसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ । उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १९ ॥ उदधिसदृङ्नाम्नां, त्रिंशत्कोटिकोटयः । उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः - उदहीसरिस - समुद्र के समान, नामाणं नाम वाले, तीसई- तीस, कोडिकोडीओ-कोटाकोटि ' सागरोपम, उक्कोसिया - उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, होइ होती है, जहन्निया- जघन्य अर्थात् न्यून से न्यून, अंतीमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति । मूलार्थ - ज्ञानावरणीयादि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम और कम से कम स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । टीका-जैसे खाया हुआ ग्रास रस, रुधिर, मांस, मज्जा और अस्थि आदि भावों में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा के द्वारा ग्रहण किए कर्म-वर्गणा के परमाणु भी ज्ञानावरणादि के रूप में परिणत हो जाते हैं। जब उनका आत्म-प्रदेशों के साथ क्षीर- नीर की भांति सम्बन्ध हो जाता है तब वे खाई हुई औषधि की तरहं नियत समय पर अपना फल दिखाते हैं। उन कर्मों की स्थिति अधिक से अधिक तीस कोटाकोटि सागरोपम की और न्यून से न्यून एक अन्तर्मुहूर्त्त की मानी गई है। तात्पर्य यह है कि वे अधिक से अधिक तीस कोटाकोटि सागरोपम जितने समय तक फल देते हैं और न्यून से न्यून अन्तर्मुहूर्त्तमात्र में फल देकर पृथक् हो जाते हैं। मध्यस्थिति का कोई नियम नहीं, वे दो घड़ी में भी फल दे सकते हैं और दो वर्ष में भी। सागरोपम का प्रमाण–एक योजन प्रमाण लम्बे-चौड़े कूप को बारीक केंसों से भरा जाए, अर्थात् एक-एक केश के अग्र भाग के असंख्यात सूक्ष्म खंड कर दिए जाएं, उनसे वह कूप ठूंस-ठूंस कर भर दिया जाए और सौ-सौ वर्ष के बाद उसमें से एक-एक खंड निकाला जाए; इस प्रकार जब वह सारा कूप खाली हो जाए तब एक पल्य होता है, जब ऐसे दश कोटाकोटि पल्य बीत जाएं तब उनका एक उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०३] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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