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गुरुजनों की पूजा में और बाल-वृद्ध तथा ग्लानादि की सेवा में तत्पर रहना अभ्युत्थान कहलाता है।
उपसम्पत् नाम की दसवीं सामाचारी का अभिप्राय यह है कि ज्ञानादि के सम्पादनार्थ अन्य गच्छादि में संक्रमण करना, अर्थात् अपने गुरुजनों की आज्ञा लेकर विद्या ग्रहणार्थ अन्य गच्छ के आचार्य के समीप जाना और विनय एवं शुश्रूषा पूर्वक श्रुत-विद्या का सम्पादन करना उपसम्पत् सामाचारी है। इस कथन से ज्ञान-विषयक उत्सुकता और गच्छान्तर के साथ प्रीतिभाव का रखना बताया गया है, कारण कि प्रत्येक गच्छ के साथ प्रीतिभाव होगा तब ही ज्ञानादि के ग्रहणार्थ वहां जाने की उत्कण्ठा उत्पन्न होगी।
इस प्रकार साधुओं की सामाचारी के ये दस नाम तीर्थंकर भगवान ने प्रतिपादन किए हैं। अब प्रत्येक सामाचारी के अर्थ और विषय का प्रदर्शन कराते हैं, यथा
गमणे आवस्सियं कुज्जा, ठाणे कुज्जा निसीहियं । आपुच्छणं सयंकरणे, परकरणे पडिपुच्छणं ॥ ५ ॥ छन्दणा दव्वजाएणं, इच्छाकारो य सारणे । मिच्छाकारो य निन्दाए, तहक्कारो पडिस्सुए ॥ ६ ॥ अब्भुट्ठाणं गुरुपूया, अच्छणे उवसंपदा । एवं दुपंचसंजुत्ता, सामायारी पवेइया ॥ ७ ॥
गमन आवश्यकीं कुर्यात्, स्थाने कुर्यान्नैषेधिकीम् । आप्रच्छना स्वयंकरणे, परकरणे प्रतिप्रच्छना ॥ ५ ॥ छन्दना द्रव्यजातेन, सारणे । इच्छाकारश्च मिथ्याकारश्च निन्दायां, तथाकारः प्रतिश्रुते ॥ ६॥ अभ्युत्थानं गुरुपूजायां, अवस्थाने उपसंपद् ।, एवं द्विपंचसंयुक्ता, सामाचारी प्रवेदिता ॥ ७ ॥
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पदार्थान्वयः - गमणे - गमन करने के समय, आवस्सियं - आवश्यकी, कुज्जा-करे, ठाणे-स्थिति करने के समय, निसीहियं - नैषेधिकी, सयंकरणे - स्वयं - अपने कार्य करने में, आपुच्छणं-आप्रच्छना करे, परकरणे - पर के कार्य करने के समय, पडिपुच्छणं - प्रतिप्रच्छना करे ।
छन्दणा - निमन्त्रणा करना, दव्वजाएणं-द्रव्य जाति से, य-और, इच्छाकारो - इच्छाकार, सारणे-अपने और पर के कार्य के विषय में, य-तथा, निन्दाए - अपने आत्मा की निन्दा के विषय में, मिच्छाकारो - मिथ्याकार करना, पडिस्सुए-गुरुओं के वचन को स्वीकारने में तहक्कारो - तथाकार
करना।
गुरुपूया - गुरुओं की पूजा में, अब्भुट्ठाणं - अभ्युत्थान- उद्यम करना, अच्छणे- ज्ञानादि की प्राप्ति उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२२] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं