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नाम वाली सामाचारी है।
छन्दना नाम की पांचवीं, छठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार और आठवीं तथाकार नाम
वाली है।
अभ्युत्थान नामा नवमी और दसवीं उपसम्पदा है। सो यह साधुओं की दश अवयवरूप सामाचारी तीर्थंकरों ने वर्णन की है।
टीका-प्रस्तुत गाथाओं में सामाचारी के दशविध नामों का निर्देश मात्र किया गया है। इनमें पहली सामाचारी का नाम आवश्यकी है। जब से दीक्षा ग्रहण की हो, तब से लेकर आयु-पर्यन्त गुरुजनों की आज्ञा में रहना, आशातना के भय से कोई भी काम गुरुजनों की आज्ञा के बिना न करना, तथा जब किसी कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर अन्यत्र कहीं जाना पड़े तब गुरुओं की आज्ञा लेकर और उपाश्रय से निकलते समय 'आवस्सही-आवश्यकी'-ऐसे कहकर निकलना इसको आवश्यकी सामाचारी कहते हैं। ___दूसरी का नाम नैषेधिकी है। जब कहीं उपाश्रय में प्रवेश करे तो 'निसीहि-नषेधिकी' कहकर प्रवेश करे, यह दूसरी नैषेधिकी सामाचारी है।
तीसरी सामाचारी का नाम आप्रच्छना है। आहार-विहार आदि क्रियाओं में गुरुजनों को पूछकर प्रवृत्ति करने का नाम आप्रच्छना है।
चौथी सामाचारी का नाम प्रतिप्रच्छना है। एक बार किसी कार्य के लिए गुरुओं को पूछ लिया, परन्तु यदि कोई उसमें और क्रिया करने की आवश्यकता पड़े, अथवा कोई अन्य साधु किसी कार्य के लिए कहे तो फिर गुरुजनों को पूछने का नाम प्रतिप्रच्छना है।
पांचवीं का नाम छन्दना है। उसका अर्थ यह है कि लाए हुए आहार में से समविभाग करके गुरुजनों ने जो आहार दिया है उसमें से अन्य साधुओं को निमन्त्रण करना छन्दना कहलाती है। ___उस आहार के लिए साधुओं के प्रति इस प्रकार कहना कि "आप कृपा करके मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें" यह इच्छाकार नाम की छठी सामाचारी है।
सातवीं मिथ्याकार नामा सामाचारी का अर्थ यह है कि साधु किसी स्थान पर स्खलित हो गया हों, अथवा किसी स्थान पर दोष लग गया हो, तब साधु अपनी आत्मा की निन्दा करे और अपनी भूल स्वीकार करे। तात्पर्य यह है कि प्रमादवश किसी प्रकार स्खलना या दोष लग जाने से अपनी आत्मा की निन्दा करना और उक्त भूल के लिए पश्चात्ताप करना मिथ्याकार सामाचारी है। 'यथा-मिच्छा मि दुक्कडं' इस प्रकार कहना। ___ आठवीं सामाचारी का नाम तथाकार है। किसी प्रकार का दोष लग जाने पर गुरुओं के पास आलोचनार्थ जाना और वे जो आदेश दें उसको प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना तथाकार सामाचारी है। - नवमी सामाचारी का नाम अभ्युत्थान है। करणीय कार्यों के लिए सदैव उद्यत रहना, अर्थात्
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उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२१] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं