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________________ के लिए, उवसंपदा - गुरुजनों के पास रहना, एवं इस प्रकार, दुपंच - द्विपंच, संजुत्ता-संयुक्त, सामायारी - सामाचारी, पवेइया - प्रतिपादन की है। मूलार्थ - चलने के समय आवश्यकी और स्थिति करते समय नैषेधिकी कहना, तथा अपने कार्य के समय पूछने को आप्रच्छना और पर के कार्यार्थ पूछने को प्रतिप्रच्छना कहते हैं। द्रव्य की - जाति की निमन्त्रणा का नाम छन्दना, अपने और पर के कार्य के लिए इच्छा प्रकट करना इच्छाकार है, आत्म-निन्दा करना मिथ्याकार और गुरुजनों के वचनों को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना तथाकार सामाचारी है। गुरुजनों की पूजा में उद्यत रहना अभ्युत्थान और ज्ञानादि की शिक्षा के लिए उनके पास रहना उपसम्पदा है। इस तरह यह दश प्रकार की सामाचारी कथन की गई है। टीका- जब किसी कारणवशात् साधु अपने स्थान से बाहर गमन करे तब गमन करते समय ‘आवस्सही' कहे। उक्त वाक्य का तात्पर्य यह है कि स्वाध्याय आदि पवित्र क्रियाओं को छोड़कर मैं किसी आवश्यक कार्य के लिए ही उपाश्रय से बाहर जा रहा हूं। जब किसी अन्य स्थान पर स्थिति करनी हो तब 'निसिही' कहे। इसका अर्थ यह है कि मैं, गमनागमनादि क्रियाओं से जो पापानुष्ठान हो जाता है उससे निवृत्ति पाकर, अब एक स्थान पर स्थिति करता हूं-पापों से अपने आत्मा को बचाता हूं। जब स्वयं कोई कार्य करना हो, तब गुरुजनों से आज्ञा की प्रार्थना करनी चाहिए। जैसे कि - हे भगवन् ! क्या मैं अमुक कार्य करूं अथवा न करूं, इस पर गुरुजनों की आज्ञा से उनकी इच्छानुसार कार्य करना, आप्रच्छना है। जब किसी पर कार्य में प्रवृत्ति करनी हो, तब भी गुरुजनों की आज्ञा लेनी चाहिये, जैसे कि - हे भगवन् ! क्या मैं अमुक मुनि का अमुक कार्य करूं ? इस प्रकार प्रत्येक कार्य गुरुजनों की आज्ञा से ही करना चाहिए। यह प्रतिप्रच्छना है। तात्पर्य यह है कि श्वासोच्छ्वास को छोड़कर अपने कार्य के लिए वा पर के कार्य के लिए गुरुजनों से बार-बार आज्ञा लेनी चाहिए, इसी को आप्रच्छना और प्रतिप्रच्छना कहते हैं। अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि पदार्थ जो भिक्षा द्वारा मांग कर लाए हुए हैं, उनके लिए अन्त:करण से अन्य भिक्षुओं को निमंत्रित करना जैसे कि - " हे भिक्षुओ ! आप मुझ पर अनुग्रह करें, मुझसे अमुक पदार्थ ग्रहण करें, इत्यादि सामाचारी कहलाती है। जिस समय अपना या पर का कोई कार्य करना हो, उस समय गुरुओं के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करना तथा उनकी आज्ञा मिलने पर ही कार्य करना, इच्छाकार सामाचारी है। जैसे कि पात्रलेपन और सूत्रदानादि क्रियाएं हैं। यदि कोई साधुवृत्ति से प्रतिकूल कार्य हो जाए तो उसके लिए आत्मनिन्दा करना, अर्थात् मुझे धिक्कार है कि जो मैंने अमुक कार्य अपनी साधुवृत्ति के विरुद्ध किया है - इस प्रकार आत्म-विगर्हा करना मिथ्याकार सामाचारी है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२३] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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