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________________ उसकी उतनी स्थिति वह इस जन्म में पूरी कर लेता है। परन्तु यह सब आयुकर्म के प्रभाव से ही होता है। अब नाम-कर्म के विषय में कहते हैं नामकम्मं तु दविह, सहमसहं च आहियं । सुहस्स उ बहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥ १३ ॥ नामकर्म तु द्विविधं, शुभमशुभं चाख्यातम् । शुभस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवाशुभस्यापि ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः-नामकम्म-नामकर्म, दुविहं-दो प्रकार का, आहियं-कहा है, सुहं-शुभ, च-और, असुहं-अशुभ, सुहस्स उ-शुभ नामकर्म के भी, बहू भेया-बहुत भेद हैं, एमेव-इसी प्रकार, असुहस्स वि-अशुभ के भी बहुत भेद हैं। मूलार्थ-नामकर्म का दो प्रकार से वर्णन किया गया है-शुभ नाम और अशुभ नाम। शुभ नामकर्म के बहुत भेद हैं तथा अशुभ नामकर्म के भी अनेक भेद हैं। टीका-जिस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है उसे नामकर्म कहते हैं। नामकर्म के शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म ऐसे दो भेद हैं। यद्यपि शुभ और अशुभ इन दोनों नामकर्मों के उत्तरोत्तर अनन्त भेद हो जाते हैं, तथापि मध्यम मार्ग की विवक्षा से शुभ नामकर्म के ३७ और अशुभ नाम के ३४ उत्तर भेद कथन किए गए हैं। यथा शुभ नामकर्म के उत्तर भेद-१. मनुष्यगति', २. देवगति, ३. पञ्चेन्द्रियजाति, ४. औदारिक, ५. वैक्रिय, ६. आहारक, ७. तैजस, ८. कार्मण, पंचशरीर ९. सम चतुरस्र-संस्थान, १०. वज्रऋषभ-नाराच-संहनन, ११. औदारिक, १२. वैक्रिय, १३. आहारक, १४. तीनों शरीरों के प्रशस्त अंगोपांग, १५. गन्ध, १६. रस, १७. स्पर्श, १८. मनुष्यानुपूर्वी, १९. देवानुपूर्वी, २०. अगुरुलघु, २१. पराघात, २२. उच्छ्वास, २३. आताप, २४. उद्योत, २५. प्रशस्त विहायोगति, २६. त्रस, २७. बादर, २८. पर्याप्त, २९. प्रत्येक, ३०. स्थिर, ३१. शुभ, ३२. सुभग, ३३. सुस्वर, ३४. आदेय, ३५. यश:कीर्ति, ३६. निर्माण और ३७. तीर्थंकरनाम, ये ३७ भेद शुभ नामकर्म के हैं। अशुभ नामकर्म के उत्तर भेद-१. नरकगति, २. तिर्यंचगति, ३. एकेन्द्रियजाति, ४. द्वीन्द्रियजाति, ५. त्रीन्द्रियजाति, ६. चतुरिन्द्रिय-जाति, ७. ऋषभ-नाराच, ८. नाराच, ९. अर्द्धनाराच, १०. कीलिका, ११. सेवार्त, १२. न्यग्रोधमण्डल, १३. साति, १४. वामन, १५. कुब्ज, १६. हुंड, १७. अप्रशस्त वर्ण, १८. अप्रशस्त गन्ध, १९. अप्रशस्त रस, २०. अप्रशस्त स्पर्श, २१. नरकानुपूर्वी, २२. तिर्यगानुपूर्वी, २३. उपघात, २४. अप्रशस्त विहायोगति, २५. स्थावर, २६. सूक्ष्म, २७. साधारण, २८. अपर्याप्त, २९. १. यहां पर नाम शब्द सब के साथ जोड़ लेना-जैसे-मनुष्यगति-नाम, इत्यादि। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२९८] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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