________________
अस्थिर, ३०. अशुभ, ३१. दुर्भग, ३२. दुःस्वर, ३३. अनादेय और ३४. अयश:कीर्ति, ये ३४ भेद अशुभ नामकर्म के हैं। .
यह वर्णन मध्यम-विवक्षा को लेकर किया गया है तथा बन्धन और संघातों का शरीर से पृथक् करके और वर्णादि के अवान्तर भेदों का वर्णादि से पृथक् करके उल्लेख इसलिए नहीं किया गया कि ऐसा करने से उक्त संख्या में न्यूनाधिकता के आ जाने की सम्भावना हो जाती है। अब गोत्रकर्म के विषय में कहते हैं, यथा
गोयं कम्मं दुविहं, उच्चं नीयं च आहियं । उच्चं अट्ठविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं ॥ १४ ॥
गोत्रं कर्म द्विविधम्, उच्चं नीचं चाख्यातम् ।
उच्चमष्टविधं भवति, एवं नीचमप्याख्यातम् ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-गोयं कम्म-गोत्रकर्म, दुविहं-दो प्रकार का, आहियं-कहा है, उच्च-उच्च गोत्र, च-और, नीयं-नीच गोत्र, उच्च-उच्च गोत्र, अट्ठविहं-आठ प्रकार का, होइ-होता है, एवं-इसी प्रकार, नीयं पि-नीच गोत्र भी-आठ प्रकार का, आहियं-कहा है।
मूलार्थ-उच्च और नीच भेद से गोत्रकर्म दो प्रकार का कहा गया है। उच्च गोत्र के आठ भेद हैं। इसी प्रकार नीच. गोत्र भी आठ प्रकार का कहा गया है।
टीका-गोत्र का अर्थ है कुल तथा जिस कर्म के प्रभाव से यह जीव उच्च तथा नीच कुलों में उत्पन्न होता है उसे गोत्रकर्म कहते हैं। गोत्रकर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र। इन दोनों में भी प्रत्येक के आठ-आठ भेद माने गए हैं। यथा-जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और रूप-ये आउ भेद उच्च गोत्र के हैं और ये ही आठ भेद नीच गोत्र के हैं। उनमें भेद सिर्फ उत्तम और अधम का है अर्थात् ये उक्त आठ वस्तुएं जिस कर्म के द्वारा उत्तम प्राप्त हों उसे "उच्च गोत्र' कहा जाता है, तथा ये ही आठ वस्तुएं जिस कर्म के द्वारा अधम (नीच कोटि की) प्राप्त हों उसे 'नीच गोत्र" कहते हैं। दूसरे शब्दों में-जिस कर्म के उदय से इस जीव को उत्तम जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत,
१. गोत्र शब्द की व्युत्पत्ति प्रज्ञापना-सूत्र में श्री मलयगिरि जी ने इस प्रकार की है-"तथा गूयते शब्द्यते उच्चावचैः
शब्दैर्यत् तद् गोत्रम्, उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणः, पर्यायविशेषः। तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रं, कार्यै कारणोपचारात्। यद्वा कर्मणोपादानविवक्षा, गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयात् तद् गोत्रम्' [पद २३ सू. २८८] तथा अभयदेवसूरि जी ने स्थानांगसूत्र की वृत्ति में गोत्र शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है"पूज्योऽयमित्यादिव्यपदेशरूपां गां वाचं त्रायत इति गोत्रम्। स्वरूपं चास्येदम्"जह कुंभारो भंडाई कुणई, पुज्जेयराइं लोयस्स । इय गोयं कुणइ जियं, लोए पूज्जेयरावत्थं ॥" छा.-यथा कुम्भकारो भाण्डानि, करोति पूज्येतराणि लोकस्य । एवं गोत्रं करोति जीवं, लोके पूज्येतरावस्थम् ।।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२९९] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं