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(क) अनन्तानुबंधी-जिस कषाय के प्रभाव से यह जीवात्मा अनन्तकाल तक इस संसार में भ्रमण करती है उस कषाय को अनन्तानुबंधी कहते हैं।
(ख) अप्रत्याख्यानावरण-जिस कषाय के उदय से देशविरतिरूप अल्पप्रत्याख्यान की प्राप्ति नहीं होती वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है।
(ग) प्रत्याख्यानावरण-जिस कषाय के प्रभाव से सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान अर्थात् मुनिधर्म को यह जीव प्राप्त नहीं कर सकता उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं।
(घ) संज्वलन-जो कषाय, परीपह तथा उपसर्गों के आ जाने पर मुनियों को भी थोड़ा-सा जलावे अर्थात् उन पर जिसका थोड़ा-सा असर हो जाए उसे संज्वलनकषाय कहते हैं।
यहां पर इतना ध्यान रहे कि यह संज्वलनरूप कषाय, सर्वविरति रूप साधु-धर्म में तो किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचाता, किन्तु सब से ऊंचे, यथाख्यातचारित्र और केवलज्ञान में बाधक अवश्य होता है।
नोकषाय के सात अथवा नौ भेद हैं। यथा-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और वेद, ये सात भेद हैं। और यदि वेद के पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद इस प्रकार तीन भेद पृथक्-पृथक् मान लिए जाएं तो (६+३=९) कुल नौ भेद होते हैं। इन कषायों के उदय से इस जीवात्मा को चारित्र धर्म में ग्लानि उत्पन्न हो जाती है।
इस प्रकार यह मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृतियों का संक्षेप से वर्णन किया गया है, अब सूत्रकार आयु-कर्म के विषय में कहते हैं
नेरइय-तिरिक्खाउं, मणस्साउं तहेव य । देवाउयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउव्विहं ॥ १२ ॥
नैरयिक-तिर्यगायुः, मनुष्यायुस्तथैव च । .. . देवायुश्चतुर्थं तु, आयुःकर्म चतुर्विधम् ॥ १२ ॥
पदार्थान्वयः-नेरइय-नैरयिकायु अर्थात् नरक की आयु, तिरिक्खाउं-तिर्यक् की आयु, य-और, तहेव-उसी प्रकार, मणुस्साउं-मनुष्य की आयु, तु-फिर, चउत्थं-चतुर्थ, देवाउयं-देवों की आयु, आउकम्म-आयुकर्म, चउव्विहं-चार प्रकार का है।
मूलार्थ-आयुकर्म चार प्रकार का है-नरकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु।
टीका-जिस कर्म के अस्तित्व से यह प्राणी जीवित रहता है और क्षय हो जाने से मर जाता है उसको आयु कहते हैं। आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियां चार हैं। यथा (१) देवायु (२) मनुष्यायु (३) तिर्यगायु और (४) नरकायु। तात्पर्य यह है कि नरक, तिर्यग्, देव और मनुष्य, इन चारों गतियों में यह जीव इस आयुकर्म के सहारे से ही स्थिति करता है, पूर्व जन्म में वह जितनी आयु बांधकर आता है
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२९७ ] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं