SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ-चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है। यथा-कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। टीका-आत्मा के चरित्र-गुण के विघातक कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से यह आत्मा चारित्र के सुन्दर फल को जानती हुई भी चारित्र का ग्रहण न कर सके, किन्तु चारित्रविषयक मूढ़ता को प्राप्त हो जाए उसका नाम चारित्रमोहनीय है। इस कर्म के दो भेद हैं, कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। जो कषायों के साथ मिलकर कार्य करता है, वह कषायमोहनीय कहा जाता है और जो हास्यादि नोकषाय के साथ कार्य करता है, वह नोकषायमोहनीय है। कषाय और नोकषाय ये दोनों ही चारित्र में विघ्न उपस्थित करते हैं। अब कषाय और नोकषाय के विषय में कहते हैं, यथा सोलसविहभेएणं. कम्म त कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ॥ ११ ॥ षोडशविधं भेदेन, कर्म तु कषायजम् । सप्तविधं नवविधं वा, कर्म नोकषायजम् ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-सोलसविह-सोलह प्रकार के, भेएणं-भेद से, कम्म-कर्म, कसायज-कषाय से उत्पन्न होने वाला होता है, तु-फिर, कम्म-कर्म, नोकसायजं-नोकषाय के कारण से उत्पन्न होने वाला, सत्तविह-सात प्रकार का, वा-अथवा, नवविह-नव प्रकार का होता है। मूलार्थ-कषायमोहनीय कर्म सोलह प्रकार का है और सात अथवा नव प्रकार का नोकषायमोहनीय कहा गया है। टीका-कषायमोहनीय के सोलह भेद हैं। यथा-क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार तो मूल कषाय हैं। फिर इनमें से-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन भेद से एक-एक के चार-चार भेद होने से, सब मिलाकर सोलह भेद हो जाते हैं। जैसे कि (क) १. अनन्तानुबंधी क्रोध, २. अनन्तानुबंधी मान, ३. अनन्तानुबंधी माया और ४. अनन्तानुबंधी लोभ। (ख) १. अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, २. अप्रत्याख्यानावरण मान, ३. अप्रत्याख्यानावरण माया और ४. अप्रत्याख्यानावरण लोभ। (ग) १. प्रत्याख्यानावरण क्रोध, २. प्रत्याख्यानावरण मान, ३. प्रत्याख्यानावरण माया और ४. प्रत्याख्यानावरण लोभ। (घ) १. संज्वलन क्रोध, २. संज्वलन मान, ३. संज्वलन माया और ४. संज्वलन लोभ। इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह भेद हो जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२९६] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy