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________________ मोह अर्थात् मूढ़ता उत्पन्न करे अर्थात् दर्शन- श्रद्धान में रुकावट पैदा करे उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। समाधान-जिस प्रकार उपनेत्र (चश्मा) आंखों का आच्छादक होने पर भी देखने में प्रतिबन्धक नहीं होता, उसी प्रकार यह सम्यक्त्वमोहनीय कर्म आवरणस्वरूप आत्मा के दर्शनगुण का आच्छादक होने पर भी शुद्ध होने के कारण आत्मा के दर्शनगुण अर्थात् तत्त्वार्थाभिरुचि-तत्त्वार्थश्रद्धा का विघात नहीं करता। अब रही 'सम्यक्त्वमोहनीय' इस वाक्य के शब्दार्थ की बात। अतः इसका तात्पर्य यह है कि यहां पर सम्यक्त्व शब्द से आत्मा के स्वभावरूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व का ग्रहण अभिप्रेत है। तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वमोहनीय के उदय से इस आत्मा को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति तो नहीं होती, परन्तु तत्त्वाभिरुचिरूप सम्यक्त्व में यह बाधक नहीं होता, किन्तु शुद्ध होने से उसमें सहायक ही होता है। इसके अतिरिक्त इस कर्म के प्रभाव से सम्यक्त्व में कुछ मलिनता अवश्य आ जाती है, जिसके कारण सूक्ष्म तत्त्वों के विचारने में अनेक प्रकार की शंकाएं उत्पन्न होने लगती हैं। इस प्रकार इस सारे कथन का तात्पर्य यह हुआ कि जिस कर्म के प्रभाव से इस आत्मा को सम्यक्त्व अर्थात् क्षायिक-सम्यक्त्व की प्राप्ति न हो सके और जीवादितत्त्वों पर श्रद्धा हो, परन्तु कुछ संशय बना रहे, उसका नाम सम्यक्त्वमोहनीय है। सम्यक्त्व के क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और वेदकसम्यक्त्व आदि अनेक भेद हैं जिनका विस्तार-भय से यहां पर उल्लेख नहीं किया गया। २. मिथ्यात्वमोहनीय-जिस कर्म के प्रभाव से इस आत्मा में पदार्थों के स्वरूप को विपरीत भाव से जानने की बुद्धि उत्पन्न होती है, अर्थात् यह जीव हित को अहित और अहित को हित रूप समझने लंगता है उस कर्म का नाम मिथ्यात्वमोहनीय है। ३. सम्यक्-मिथ्यात्वमोहनीय-इस कर्म के उदय से आत्मा को तत्त्व की रुचि और अतत्त्व की अरुचि भी नहीं होती, अर्थात् उसका जिन-धर्म पर न तो राग ही होता है और न द्वेष ही होता है, किन्तु सभी धर्मों को वह एक ही जैसा देखता है। तात्पर्य यह है कि उसकी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों में समान भावना रहती है। इसी का दूसरा नाम मिश्रमोहनीय है। अब चारित्रमोहनीय कर्म के विषय में कहते हैं, यथा चरित्तमोहणं कम्म, दुविहं तु वियाहियं । कसायमोहणिज्जं च, नोकसायं तहेव य ॥ १० ॥ . चारित्रमोहनं कर्म, द्विविधं तु व्याख्यातम् । कषायमोहनीयं च, नोकषायं तथैव च ॥ १० ॥ • पदार्थान्वयः-चरित्तमोहणं-चारित्रमोहनीय, कम्म-कर्म, दुविह-दो प्रकार का, वियाहियं-कथन किया है, कसायमोहणिज्ज-कषायमोहनीय, तहेव-उसी प्रकार, नोकसायं-नोकषाय मोहनीय, च-समुच्चयार्थक है, य, तु-प्राग्वत् । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २९५] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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