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________________ य-फिर, चराचरे-जंगम और स्थावर, अणेगरूवे-अनेक जाति के जीवों की, हिंसइ-हिंसा करता है, चित्तेहि-नाना प्रकार के शस्त्रों से, बाले-अज्ञानी जीव, ते-उन, जीवों को, परितावेइ-परिताप देता है, पीलेइ-पीड़ा पहुंचाता है, अत्तट्ठगुरू-अपने स्वार्थ के लिए, किलिट्ठे-राग से आकर्षित हुआ। ___ मूलार्थ-सुन्दर स्पर्श की आशा के पीछे भागता हुआ यह अज्ञानी जीव अनेक प्रकार के जंगम और स्थावर जीवों की हिंसा करता है तथा राग से आकर्षित हुआ स्वार्थ के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के शस्त्रादि-प्रयोगों से उन जीवों को परिताप देता है और पीड़ा पहुंचाता है। टीका-इस गाथा की व्याख्या भी पहले की जा चुकी है। अब फिर कहते हैंफासाणुवाएण परिग्गहेण,. उप्पायणे रक्खणसंनिओगे । वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ ८० ॥ स्पर्शानुपातेन · परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे । व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, सम्भोगकाले चातृप्तिलाभे ॥ ८० ॥ पदार्थान्वयः-फासाणुवाएण-स्पर्श के अनुराग से, परिग्गहेण-परिग्रह से, उप्पायणे-उत्पादन में, रक्खणसंनिओगे-रक्षण और संनियोग में, वए-विनाश होने पर, विओगे-वियोग में, से-उस रागी पुरुष को, कह-कैसे, सुहं-सुख हो सकता है, संभोगकाले-संभोगकाल में, अतित्तलाभे-तृप्ति का लाभ न होने से। मूलार्थ-सुन्दर स्पर्श के अनुराग से और परिग्रह से स्पर्श के उत्पादन में, रक्षण में, सन्नियोग में, व्यय होने पर, विनाश होने पर और संभोगकाल में तृप्ति न होने से उस रागी जीव को सुख कहां हो सकता है, अर्थात् उसे सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। टीका-जो व्यक्ति स्पर्शादि के विषय में अत्यन्त मूच्छित है उसको किसी समय भी सुख का प्राप्त होना कठिन हैं। इस विषय का अधिक विवेचन पीछे अनेक बार किया गया है, उसी के अनुसार यहां पर भी समझ लेना चाहिए।' अब फिर इसी विषय में कहते हैं, यथाफासे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिँ । अतुठ्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ८१ ॥ स्पर्शेऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो नोपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविल आदत्तेऽदत्तम् ॥ ८१ ॥ पदार्थान्वयः-फासे-स्पर्श विषयक, अतित्ते-अतृप्त, य-तथा, परिग्गहम्मि-परिग्रह में, , उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २६५] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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