________________
पदार्थान्वयः-जे यावि-जो भी साधक अप्रिय स्पर्श में, तिव्वं-अत्युत्कट, दोसं-द्वेष, समुवेइ-करता है, से-वह, तंसि क्खणे-उसी क्षण में, दुक्ख-दुःख को, उवेइ-प्राप्त हो जाता है, सएण-स्वकृत, दुदंतदोसेण-दुर्दमनीय दोष से, जंतू-जीव-दुःख पाता है, से-उसका, फासं-स्पर्श, किंचि-यत्किचित् भी, न अवरज्झई-अपराध नहीं करता।
मूलार्थ-जो साधक अप्रिय स्पर्श के विषय में तीव्र भाव से द्वेष को करता है वह स्वकृत दुर्दमनीय दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त हो जाता है, परन्तु अप्रिय स्पर्श उसका किंचिन्मात्र भी अपराध नहीं करता, तात्पर्य यह है कि इस दुःखोत्पत्ति का कारण उसका अपना अन्दर बढ़ा हुआ द्वेष है, इसमें अप्रिय स्पर्श का कोई अपराध नहीं है।
टीका-प्रस्तुत गाथा का तात्पर्य स्पष्ट है, पूर्व गाथाओं के समान होने से। ___अब राग-द्वेष और उसकी निवृत्ति के फल का वर्णन करते हुए शास्त्रकार इसी विषय में फिर कहते हैं, यथा -
एगतरत्ते रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ७८ ॥
एकान्तरक्तो रुचिरे स्पर्श, अतादृशे सः कुरुते प्रद्वेषम् ।
दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी ॥ ७८ ॥ पदार्थान्वयः-रुइरंसि-रुचिर, फासे-स्पर्श में जो, एगंतरत्ते-अत्यन्त अनुरक्त है और, अतालिसे-अमनोहर स्पर्श में, पओसं-अत्यन्त द्वेष, कुणई-करता है, से-वह, दुक्खस्स संपीलं-दुःख सम्बन्धी पीड़ा को, उवेइ-प्राप्त होता है, बाले-अज्ञानी, तेण-उस पीड़ा से, विरागो-विरक्त, मुणी-मुनि, न लिप्पई-लिप्यमान नहीं होता।
मूलार्थ-जो मनुष्य प्रिय स्पर्श में अत्यन्त आसक्त है और अप्रिय स्पर्श में अत्यन्त द्वेष रखता है वह अज्ञानी जीव ही दुःखसम्बन्धी पीड़ा को प्राप्त होता है। जो विरक्त मुनि है वह इस दुःखसम्बन्धी पीड़ा से लिप्त नहीं होता।
टीका-भावार्थ स्पष्ट है। अब बढ़े हुए राग से होने वाले हिंसादि अनर्थों का वर्णन करते हैंफासाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ ७९ ॥
स्पर्शानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान्हिनस्त्यनेकरूपान् ।
चित्रैस्तान् परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ॥ ७९ ॥ पदार्थान्वयः-फासाणुगासाणुगए-सुन्दर स्पर्श की आशा के पीछे भागता हुआ, जीवे-जीव,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २६४] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं