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________________ पदार्थान्वयः-कायं-काया को, फासस्स - स्पर्श का, गहणं- ग्राहक, वयंति - कहते हैं और, फासं-स्पर्श को, कायस्स - काया का, गहणं - ग्राह्य, वयंति - कहते हैं, समणुन्नं- मनोज्ञ स्पर्श को, रोगस्स हेड - राग का हेतु, आहु-कहा गया है, अमणुन्नं- अमनोज्ञ स्पर्श को, दोसस्स हेडं-द्वेष का हेतु, आहु-कहा गया है। मूलार्थ - काया अर्थात् त्वक् स्पर्श का ग्राहक है और स्पर्श काया का ग्राह्य है। तात्पर्य यह है कि इन दोनों का आपस में ग्राह्य-ग्राहकभाव सम्बन्ध है, इनमें जो मनोज्ञ स्पर्श है वह तो राग का हेतु है और जो अमनोज्ञ है वह द्वेष का कारण होता है। टीका - स्पर्श के शीतोष्णादिरूप से अनेक भेद हैं। अब स्पर्श - विषयक बढ़े हुए राग के फल का वर्णन करते हैं, यथाफासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं रागाउरे सीयजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥ ७६ ॥ स्पर्शेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्राम्, अकालिकं प्रप्नोति स विनाशम् । रागातुरः शीतजलावसन्नः, ग्राहगृहीतो महिष इवारण्ये ॥ ७६ ॥ पदार्थान्वयः - जो-जो फासेसु - स्पर्शविषयक, तिव्वं तीव्र रूप से, गिद्धिं - मूर्च्छाभाव को, उवेइ- - प्राप्त होता है, से- वह, अकालियं-अकाल में ही, विणासं विनाश को, पावइ - प्राप्त हो जाता है, रागाउरे - राग से आतुर हुआ, सीयजलावसन्ने - शीतल जल में निमग्न, व-जैसे, अरण्णे-वन में, गाहग्गही - ग्राह के द्वारा पकड़ा हुआ, महिसे - महिष - भैंसा - विनाश को प्राप्त हो जाता है। मूलार्थ - जैसे वन के जलाशय में शीतल जल के स्पर्श में अत्यन्त मूर्छित हुआ महिष ग्राह अर्थात् मगरमच्छ के द्वारा पकड़ा जाने पर विनाश को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार मनोज्ञ स्पर्श के विषय में अत्यन्त आसक्त होने वाला पुरुष भी अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। टीका- यहां पर महिष के साथ जो अरण्यवर्ती जलाशय का ग्रहण किया है उसका तात्पर्य यह है कि यदि वह नगर के समीपवर्ती किसी जलाशय में होगा तो कोई न कोई उसको मृत्यु के मुख से छुड़ाने का प्रयत्न भी कर सकता है, परन्तु वन में उसको बन्धन से मुक्त कराने वाला कोई नहीं है, इसलिए उसका विनाश अवश्यम्भावी है। अब अमनोज्ञ स्पर्श के विषय में बढ़े हुए द्वेष के फल का वर्णन करते हैं, यथाजे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुदंतदोसेण सएण जन्तू, न किंचि फासं अवरज्झई से ॥ ७७ ॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्रं, तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किञ्चित्स्पर्शोऽपराध्यति तस्य ॥ ७७ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २६३] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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