________________
नहीं होता।
मूलार्थ - जो मनुष्य रसों में विरक्त और शोक से रहित है वह संसार में रहता हुआ भी इस दुःख - परंपरा से अलिप्त रहता है, अर्थात् सभी प्रकार के दुःखों का उससे इस प्रकार सम्पर्क नहीं होता, जैसे जल से कमल-दल अलिप्त रहता है। तात्पर्य यह है कि जैसे जल में रहने वाला कमल-पत्र जल में रहता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार रसादिविषयक अनासक्ति रखने वाला पुरुष भी सांसारिक दुःखों से व्याप्त नहीं होता ।
टीका- गाथा का भावार्थ स्पष्ट है।
अब स्पर्श - इन्द्रिय के विषय में कहते हैं, यथा
कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ७४ ॥
कायस्य स्पर्शं ग्रहणं वदन्ति तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । तं द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, समश्च यस्तेषु स वीतरागः ॥ ७४ ॥
पदार्थान्वयः - कायस्स - काया का, फासं-स्पर्श को, गहणं-ग्राह्य, वयंति - कहते हैं, तं-उस, मणुन्नं- मनोज्ञ स्पर्श को, रागहेडं-र - राग का हेतु, आहु-कहा गया है, तु-वितर्क में है, तं - उस, अमनं - अमनोज्ञ को, दोसहेउं द्वेष का हेतु, आहु - कहा गया है, जो-जो, तेसु - उनमें समो- सम भाव रखता है, स- वह, वीयरागो- वीतराग होता है।
मूलार्थ - काया का ग्राह्य विषय स्पर्श माना गया है। उसमें मनोज्ञ स्पर्श को राग का हेतु और अमनोज्ञ को द्वेष का कारण बताया गया है, परन्तु इन दोनों प्रकार के स्पर्शो में जो सम भाव रखने वाला है वही वीतराग है।
टीका - प्रिय स्पर्श राग का कारण और अप्रिय द्वेष का हेतु है, ऐसा तीर्थंकरादि महापुरुषों का कथन है, परन्तु यह कथन राग-द्वेषयुक्त आत्मा की अपेक्षा से है। कारण यह है कि उसी में प्रियाप्रिय के स्पर्श से राग-द्वेष के उत्पन्न होने की संभावना रहती है। जो वीतराग आत्मा है उसको तो दोनों में ही समानता प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि वह प्रिय और अप्रिय दोनों में ही सम भाव रखने वाला होता है।
अब इनके पारस्परिक सम्बन्ध आदि का वर्णन करते हैं, यथा
फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयति । रागस्स हेडं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ ७५ ॥ स्पर्शस्य कायं ग्राहकं वदन्ति, कायस्य स्पर्शं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥ ७५ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २६२] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं