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सत्तोवसत्तो-सामान्य एवं विशेषरूप से आसक्त, तुट्ठि-सन्तोष को, न उवेइ-प्राप्त नहीं होता, अतुट्ठिदोसेण-असन्तोष के दोष से, दुही-दु:खी हुआ, परस्स-पर के स्पर्श को, लोभाविले-लोभाकुल होकर, अदत्तं-अदत्त को, आययई-ग्रहण करने लगता है।
___ मूलार्थ-स्पर्श के विषय में अतृप्त और परिग्रह में सक्तोपसक्त अर्थात् विशिष्ट आसक्ति रखने वाला पुरुष कभी सन्तोष को प्राप्त नहीं होता तथा असन्तोष के दोष से दुःखी होता हुआ लोभ के वशीभूत होकर दूसरों के अदत्त को ग्रहण करने लगता है, अर्थात् चोरी के कर्म में प्रवृत्त हो जाता है।
टीका-स्पर्शादिविषयक बढ़े हुए असन्तोष से पुरुष कहां तक अनर्थ करने में प्रवृत्त होता है इस बात का दिग्दर्शन प्रस्तुत गाथा में कराया गया है।
पुनः कहते हैंतण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे. य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ८२ ॥
तृष्णाभिभूतस्याऽदत्तहारिणः, - स्पर्शेऽतृप्तस्य । परिग्रहे च ।
माया-मृषा वर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ॥ ८२ ॥ पदार्थान्वयः-तण्हाभिभूयस्स-तृष्णा के वशीभूत, अदत्तहारिणो-अदत्त का अपहरण करने वाला, फासे-स्पर्श में, अतित्तस्स-अतृप्त, य-और, परिग्गहे-परिग्रह में लीन होकर, लोभदोसा-लोभ के दोष से, मायामुसं-माया और मृषावाद की, वड्ढइ-वृद्धि करता है, तत्थावि-माया और मृषावाद की वृद्धि से भी, से-वह, दुक्खा-दुःख से, न विमुच्चई-मुक्त नहीं होता।
मूलार्थ-तृष्णा से व्याप्त, अदत्त का अपहारक, स्पर्श में अतृप्त और परिग्रह में मूछित होने वाला पुरुष लोभ के दोष से माया और मृषावाद की वृद्धि करता है, परन्तु फिर भी वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता, अर्थात् छुटकारा नहीं पा सका।
टीका-इस गाथा की व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ८३ ॥
मृषा (वाक्यस्य) पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः ।
एवमदत्तानि समाददानः, स्पर्शेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ८३ ॥ पदार्थान्वयः-मोसस्स-मृषावाद के, पच्छा-पश्चात्, य-और, पुरत्यओ-पहले, य-तथा, पओगकाले-प्रयोगकाल में, दुरंते-दुरन्त अर्थात् स्पर्श-इन्द्रिय के पराधीन जीव, दुही-दुःखी होता है, एवं-इसी प्रकार, अदत्ताणि-अदत्त का, समाययंतो-अंगीकार करने वाला, फासे-स्पर्शविषयक,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २६६] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं