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रसानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ।
व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, संभोगकाले चातृप्तिलाभः ॥ ६७ ॥ पदार्थान्वयः-रसाणुवाएण-रस के अनुराग से, परिग्गहेण-रस में मूर्छित होने से, उप्पायणे-रस के उत्पादन में, रक्खणसंनिओगे-रक्षण और सन्नियोग में, वए-विनाश में, विओगे-वियोग में, से-उस रागी जीव को, कह-कैसे, सुह-सुख हो सकता है, य-फिर, संभोगकाले-संभोगकाल में, अतित्तलाभे-अतृप्ति का लाभ होने पर वह दु:ख ही पाता है।
मूलार्थ-रसविषयक अत्यन्त राग और मूर्छा से रस के उत्पादन, रक्षण और सन्नियोग में लगे हुए रागी पुरुष को सुख कहां प्राप्त हो सकता है, अपितु उनका विनाश एवं वियोग होने पर और संभोग-काल में भी तृप्ति का लाभ न होने पर उसको दुःख ही होता है।
टीका-रसों में मूच्छित होने वाला पुरुष किसी समय में भी सुखी नहीं हो सकता, रसासक्त सदैव दुःख पाता है, यही इस गाथा का तात्पर्य है।
पुनः उक्त विषय में ही कहते हैंरसे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिँछ । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८ ॥
रसेऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो नोपैति तुष्टिम् ।
अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविले आदत्तेऽदत्तम् ॥ ६८ ॥ पदार्थान्वयः-रसे अतित्ते-रस के विषय में अतृप्त, य-और, परिग्गहम्मि-परिग्रह में, सत्तोवसत्तो-सामान्य एवं विशेषरूप से आसक्त, तुट्ठि-तुष्टि को, न उवेइ-प्राप्त नहीं होता, अतुठ्ठिदोसेण-अतुष्टि-दोष से, दुही-दुःखी हुआ, परस्स-अन्य के पदार्थ को, लोभाविले-लोभ के वशीभूत होकर, अदत्तं-अदत्त को, आययई-ग्रहण करने लगता है।
. मूलार्थ-रस के विषय में अतृप्त और परिग्रह में सामान्य एवं विशेषरूप से आसक्त हुआ जीव तुष्टि अर्थात् सन्तोष को प्राप्त नहीं होता तथा अतृप्ति दोष से दुःखी हुआ लोभ के वश में आकर दूसरों के पदार्थों की चोरी करने लग जाता है।
टीका-लोभ के वशीभूत हुआ असन्तोषी जीव चोरी आदि पाप के करने में प्रवृत्त हो जाता है, यही भाव इस गाथा में प्रदर्शित किया गया है।
अब लोभ-वृद्धि का फल वर्णन करते हुए फिर कहते हैं, यथातण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स ' परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥
तृष्णाभिभूतस्यादत्तहारिणः, रसेऽतृप्तस्य परिग्रहे च । मायामृषा वर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ॥ ६९ ॥
भर
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २५९] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं