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पदार्थान्वयः-तण्हाभिभूयस्स - तृष्णा के वशीभूत, अदत्तहारिणो - अदत्त का अपहरण करने वाला, रसे - रसविषयक, य-और, परिग्गहे - परिग्रहविषयक, अतित्तस्स - अतृप्त का, लोभदीसा - लोभ के दोष से, मायामुसं - माया और मृषावाद, वड्ढइ - बढ़ जाता है, तत्थावि - तो भी अर्थात् छल-कपट और असत्य भाषण किए जाने पर भी, से- वह, दुक्खा - दुःख से, न विमुच्चई - मुक्त नहीं होता ।
मूलार्थ - तृष्णा के वशीभूत, चोरी में प्रवृत्त, रस और परिग्रह में अंतृप्त रहने वाला पुरुष लोभ के दोष से छल-कपट और असत्य भाषण की वृद्धि करता है, परन्तु दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।
टीका - तृष्णावृद्धि का फल माया और मृषावाद की वृद्धि होना है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष तृष्णा के वशीभूत होकर रसों के परिग्रह में प्रवृत्ति करता है वह माया और मृषावाद को ही बढ़ाता है। अब फिर कहते हैं
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले यदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ७० ॥
मृषा - (वादस्य) पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, रसेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ७० ॥
पदार्थान्वयः - मोसस्स - मृषावाद के, पच्छा-पीछे, य-और, पुरत्थओ पहले, य-तथा, पओगकाले-प्रयोगकाल में बोलने के समय में, दुरंते - दुरन्त जीव, दुही-दु:खी होता है, एवं इसी प्रकार, अदत्ताणि - अदत्त को समाययंतो - ग्रहण करता हुआ, रसे रस में अतित्तो- अतृप्त, दुहिओ - दुःखित होता है और, अणिस्सो - सहायता से रहित होता है।
मूलार्थ - दुरन्त अर्थात् दुष्ट प्रवृत्ति वाला जीव मिथ्याभाषण के पहले और पीछे तथा बोलने के समय भी दुःखी होता है। इसी प्रकार अदत्त का ग्रहण करने वाला (चोर) और रस के विषय में अतृप्त रहने वाला भी दुःखित और आश्रय से रहित होता है ।
टीका-असत्यभाषी, चोरी करने वाला और रसों का लालची जीव किसी दशा में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता, यही इस गाथा का तात्पर्य है ।
अब फिर इसी सम्बन्ध में कहते हैं
रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज काइ किंचि तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स करण दुक्खं ॥ ७१ ॥ रसानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं स्यात् कदापि
तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृते दुःखम् ॥ ७१ ॥
पदार्थान्वयः - रसाणुरत्तस्स - रसों में अनुरक्त, नरस्स- मनुष्य को, एवं उक्त प्रकार से, कत्तो-कहां
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२६०] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं