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चित्तेहि-नाना प्रकार से, ते-उनको, परितावेइ-परिताप देता है, किलि8-रागादि से पीड़ित हुआ, अतट्ठगुरू-अपने स्वार्थ के लिए, पीलेइ-पीड़ा उपजाता है।
मूलार्थ-बढ़े हुए रागादि के कारण शब्द की आशा के वशीभूत हुआ यह अज्ञानी जीव अपने स्वार्थ के लिए अनेक जाति के जंगम और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उनको परिताप देता है और अनेक प्रकार की पीड़ा उपजाता है। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में इस भाव को व्यक्त किया गया है कि प्रिय शब्द में अत्यन्त राग रखने वाला पुरुष किसी प्रकार से भी प्राणियों की हिंसा करने या उन्हें किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाने में प्रवृत्त होता हुआ अपनी स्वार्थपरायण-प्रवृत्ति को रोकने में समर्थ नहीं हो सकता, अर्थात् अपनी इस जघन्य प्रवृत्ति में उसे उचितानुचित का भान नहीं रहता।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं, यथासद्दाणुवाएण. परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसंनिओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ ४१ ॥
शब्दानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ।
व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, सम्भोगकाले चातृप्तिलाभः ॥ ४१ ॥ पदार्थान्वयः-सद्दाणुवाएण-शब्द के अनुराग से, परिग्गहेण-परिग्रह से, उप्पायणे-उत्पाद में, रक्खणे-रक्षण में, संनिओगे-प्रबन्ध में, वए-विनाश में, विओगे-वियोग में, से-उसको, कह-कैसे-कहां से, सुहं-सुख हो सकता है, य-और, संभोगकाले-संभोगकाल में, अतित्तलाभे-तृप्ति न होने पर।
मूलार्थ-शब्द में बढ़े हुए अनुराग और ममत्व से शब्दादि द्रव्यों के उपार्जन करने में, उनके रक्षण और यथाविधि व्यवस्था करने में तथा उनके विनाश अथवा वियोग हो जाने पर और संभोगकाल में भी तृप्ति का लाभ न होने पर इस जीव को कहां सुख प्राप्त हो सकता है?
टीका-इस गाथा की व्याख्या पूर्व दी गई २८वीं गाथा के समान ही जान लेना चाहिए। तात्पर्य मात्र इतना ही है कि मनोहर शब्द में अत्यन्त लुब्ध होने वाला जीव किसी समय सुख का अनुभव नहीं कर सकता, किन्तु उत्तरोत्तर दुःख का ही उसे संवेदन होता रहता है।
अब फिर इसी के विषय में कहते हैं। यथा
सद्दे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिँ । . अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ४२ ॥
शब्देऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो नोपैति तुष्टिम् ।
अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविल आदत्तेऽदत्तम् ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयः-सद्दे-शब्द के विषय में, अतित्ते-अतृप्त, य-और, परिग्गहम्मि-परिग्रह में,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४५ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं