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________________ अप्रिय शब्द का इसमें कोई अपराध है। कारण यह है कि दु:ख का हेतु अन्त:करण में उत्पन्न होने वाला द्वेषमूलक निकृष्ट अध्यवसाय है। उसी के कारण यह जीव दु:ख का संवेदन करता है। इसलिए श्रोत्र-इन्द्रिय का दमन करना ही मुमुक्षु पुरुष का सबसे पहला कर्तव्य है। अब राग और द्वेष को अनर्थ का कारण बताते हुए फिर कहते हैं - एगतरत्ते रुइरंसि सद्दे , अतालिसे से कुणई पओसं । . दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ३९ ॥ एकान्तरक्तो रुचिरे शब्दे, अतादृशे सः कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः ॥ ३९ ॥ पदार्थान्वयः-एगंतरत्ते-एकान्त रक्त, रुइरंसि-मनोहर, सद्दे-शब्द में, अतालिसे-अमनोहर शब्द में, पओसं-प्रद्वेष, कुणई-करता है, बाले-अज्ञानी, दुक्खस्स-दुःख की, संपीलं-पीडा को, उवेइ-प्राप्त होता है, तेण-उस पीड़ा से, विरागो-वैराग्ययुक्त, मुणी-मुनि, न-नहीं; लिप्पई-लिप्त होता। मूलार्थ-जो जीव एकान्त मनोहर शब्द में तो अनुरक्त होता है और अमनोहर शब्द में द्वेष करता है वह अज्ञानी जीव दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है, परन्तु जो विरक्त मुनि है वह उससे लिप्त नहीं होता। टीका-प्रस्तुत गाथा में राग-द्वेष की परिणति और उसके त्याग का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो जीव प्रिय शब्द में राग और अप्रिय में द्वेष करता है, वह दुःख-सम्बन्धी वेदना का अवश्य अनुभव करता है, अतएव वह बाल अर्थात् अज्ञानी जीव है, परन्तु जो मुनि विरक्त है अर्थात् जिसकी आत्मा में प्रिय और अप्रिय शब्द को सुनकर राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं होते उसको दु:ख का सम्पर्क नहीं होता, अर्थात् वह सुखी है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि दु:ख रूप व्याधि का मूल कारण राग-द्वेष की परिणतिविशेष ही है, अतः सुख की इच्छा रखन वाले को इसके परित्याग में ही उद्यम करना चाहिए। अब राग को हिंसादि आस्रवों का कारण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं, किसद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ ४० ॥ शब्दानुगाशानुगतश्चजीवः, चराचरान् हिनस्त्यनेकारूपान् । चित्रैस्तान् परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ॥ ४० ॥ पदार्थान्वयः-सद्दाणुगासा-शब्द की आशा से, अणुगए-अनुगत, जीवे-जीव, य-फिर, चराचरे-चर और अचर, अणेगरूवे-अनेक प्रकार के जीवों की, हिंसइ-हिंसा करता है, बाले–अज्ञानी, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४४] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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