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________________ सत्तोवसत्तो- -सक्त और उपसक्त, तुट्ठिं-तुष्टि सन्तोष को, न उवेइ-नहीं प्राप्त होता, अतुट्ठिदोसेण - अतुष्टि के दोष से, दुही - दुःखी, परस्स - पर के, लोभाविले - लोभ से व्याकुल हुआ जीव, अदत्तं चोरी के कर्म को, आययई- अंगीकार करता है । मूलार्थ - शब्द में अतृप्त और परिग्रह में सामान्य तथा विशेष रूप से आसक्ति रखने वाला जीव लोभ के वशीभूत होकर कभी सन्तोष प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु असन्तोष रूप दोष से दुःखी होकर पर के शब्दों की इच्छा करता हुआ चौर्यकर्म में प्रवृत्त हो जाता है। टीका - प्रस्तुत गाथा में यही बताया गया है कि जो पुरुष प्रिय शब्द के अधिक रसिक हैं और परिग्रह में आसक्त रहते हैं, वे लोभ के वशीभूत होकर पराई वस्तुओं को चुराने में प्रवृत्त हो जाते हैं, क्योंकि उनको अपनी उपलब्ध सामग्री से सन्तोष नहीं होता । अब फिर कहते हैं तहाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुखं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ४३ ॥ शब्दे तृप्तस्य परिग्रहे च । माया मृषा वर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ॥ ४३ ॥ तृष्णाभिभूतस्यादत्तहारिणः, पदार्थान्वयः - तहाऽभिभूयस्स - तृष्णा से पराजित, अदत्तहारिणो-अदत्त का ग्रहण करने वाला (चोर), सद्दे - शब्द के विषय में, अतित्तस्स-अतृप्त, य-और, परिग्गहे - परिग्रह में आसक्त, लोभदोसा-लोभरूप दोष से, माया - छल, मुसं - मृषावाद को, वड्ढइ - बढ़ाता है, तत्थावि - फिर भी, से- वह, दुक्खा - दुःख से, न विमुच्चई - नहीं छूट पाता। मूलार्थ - तृष्णा के वशीभूत, चौर्य-कर्म में प्रवृत्त और शब्द तथा परिग्रह के विषय में अतृप्त पुरुष लोभ के दोष से माया और मृषावाद की वृद्धि करता है, परन्तु फिर भी वह दुःखों 'मुक्त नहीं हो सकता। टीका - इस गाथा की व्याख्या भी पूर्व में की गई ३०वीं गाथा की व्याख्या के समान ही जान लेनी चाहिए। केवल रूप और शब्द, इन दो पदों में अन्तर है। अब पूर्वोक्त विषय को फिर स्पष्ट करते हुए कहते हैंमोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले यदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ४४ ॥ मृषा (वादस्य) पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, शब्देऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ४४ ॥ पदार्थान्वयः-मोसस्स-मृषावाद के, पच्छा-पीछे, य-और, पुरत्थओ - पहले, य-तथा, पओगकाले - प्रयोगकाल में, दुही-दुःखी होता है, दुरंते दुरंत - दुष्ट कर्म करने वाला, एवं इसी प्रकार, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४६ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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