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दोष है।
तृष्णाभिभूतस्यादत्तहारिणः,
अब राग से उत्पन्न होने वाले अन्य दोष का वर्णन करते हैंतहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुखं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ३० ॥ रूपे तृप्तस्य परिग्रहे च । माया - मृषा वर्द्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुखान्न विमुच्यते सः ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः-तण्हाभिभूयस्स - तृष्णा से पराजित हुआ, अदत्तहारिणो-चोरी को करने वाला, रूवे-रूप के विषय में, अतित्तस्स - अतृप्त, य-तथा, परग्गहे - परिग्रह में अतृप्त, लोभ-दोसा-लोभरूप दोष से, मायामुसं-माया और मृषावाद की, वड्ढइ - वृद्धि करता है, तत्थावि - फिर भी, से - वह, दुक्खा - दुःख से, न विमुच्चई - नहीं छूटता ।
मूलार्थ - तृष्णा के वशीभूत हुआ, चोरी करने वाला तथा रूप परिग्रह में अतृप्त पुरुष माया और मृषावाद की वृद्धि करता है, परन्तु फिर भी वह दुःख से छुटकारा नहीं पाता ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में राग के कारण से बढ़ी हुई रूपासक्ति के दोषों का दिग्दर्शन कराया गया है। जो पुरुष तृष्णा के वशीभूत हो रहा है और अदत्तहारी अर्थात् चौर्यकर्म में प्रवृत्त है तथा रूप में अत्यन्त मूर्छित हो रहा है, वह लोभ के दोष से असत्यभाषण और छल-कपट की वृद्धि करता है अर्थात् लोभ के वशीभूत होकर जो उसने परवस्तु का अपहरण किया है उसको छिपाने के लिए छल करता है तथा झूठ बोलता है। कारण यह है कि लोभी पुरुष अपने किए हुए दुष्ट कर्म को छिपाने के लिए अनेक प्रकार से छल-कपट और मिथ्याभाषण आदि का व्यवहार करते हुए प्रायः देखे जाते हैं, परन्तु ऐसा करने पर भी वे दुःख से मुक्त नहीं हो सकते। तात्पर्य यह है कि दुष्ट कर्म, दुष्ट कर्म के द्वारा शान्त नहीं हो सकता। जैसे पुरीष - विष्ठा को पुरीष से आच्छादित कर देने पर भी उसकी दुर्गन्ध नहीं मिटती, उसी प्रकार अनिष्टाचरण की शुद्धि भी दूसरे अनिष्टाचरण से नहीं हो सकती। इसलिए प-लोलुप पुरुष अपने स्तेयकर्म को असत्यभाषणादि के द्वारा छिपाने का प्रयत्न करता हुआ भी उसे पूर्णतया छिपा नहीं सकता, किन्तु अन्त में दुःखों का ही भाजन बनता है।
रूप
अब पूर्वोक्त विषय को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले यदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ३१ ॥
मृषावाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, रूपेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ३१ ॥
पदार्थान्वयः-मोसस्स-मृषा- झूठ बोलने के, पच्छा - पश्चात्, य - तथा, पुरत्थओ - पहले, य-वा, पओगकाले-बोलने के समय, दुही - दु:खी होता हुआ, दुरंते - दुरन्त जीव, य - पुन:, एवं - इसी प्रकार,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२३८ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं