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________________ के देखने में तो किसी प्रकार के कर्मबन्ध की संभावना नहीं होती और द्वितीय प्रकार के अर्थात् राग- पूर्वक देखने से कर्मों का बन्ध अवश्य होता है, अतः शास्त्रकारों ने ब्रह्मचारी के लिए स्त्री - रूप को देखने का जो निषेध किया है वह राग- पूर्वक देखने का निषेध है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं, यथा अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं ॥ १५ ॥ अदर्शनं चैवाप्रार्थनं च, अचिन्तनं चैवाकीर्तनं च । स्त्रीजनस्यार्यध्यानयोग्यं हितं सदा ब्रह्मव्रते रतानाम् ॥ १५ ॥ . पदार्थान्वयः - अदंसणं-न देखना, अपत्थणं-प्रार्थना न करना, च- तथा, अचिंतणं-चिन्तन न करना, च-फिर, अकित्तणं कीर्तन न करना, इत्थीजणस्स - स्त्री जन का, आरियझाण- आर्य-ध्यान में, जुग्गं-योग- जोड़ना, हियं-हितरूप, सया - सदा है, बंभवए- ब्रह्मचर्य व्रत में, रयाणं- रतों को, च - समुच्चय में, एव - अवधारण में । मूलार्थ - ब्रह्मचर्य व्रत में सदा अनुरक्त रहने वालों का आर्य-ध्यानयोग्य परम हित इसी में है कि वे स्त्री-जनों का अवलोकन, उनसे किसी प्रकार की प्रार्थना, उनका चिन्तन और कीर्तन न करें। टीका - प्रस्तुत गाथा में स्त्रियों के राग- पूर्वक अवलोकन, उनमें विषय आदि की प्रार्थना, उनके रूप-लावण्य का चिन्तन और उनके सौन्दर्य आदि के वर्णन का निषेध किया गया है। स्त्रियों के दर्शन, मिलन, चिन्तन और कीर्तन से हृदय में कामविकार का उत्पन्न होना एक स्वाभाविक-सी बात है तथा कामविकार से ब्रह्मचर्य का व्याघात होना भी अस्वाभाविक नहीं, इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले साधक को इन सब विघ्नों को जीतकर आर्य-ध्यान, अर्थात् धर्म- ध्यान में अपने मन को लगाना ही सर्व प्रकार से हितकर है, यही इस गाथा का तात्पर्य है । किसी-किसी प्रति में ‘बंभचेरे- ब्रह्मचर्ये' ऐसा पाठ भी देखने में आता है परन्तु वह पाठ होने पर भी अर्थ में अन्तर नहीं हो पाता। अब संयम में सदा दृढ़ रहने वाले समर्थ साधु को भी विविक्त स्थान में ही रहने की शास्त्रकार आज्ञा देते हुए कहते हैं, यथा कामं तु देवीहिं विभूसियाहिं, न चाइया खोभइउं तिगुत्ता । तहा वि एगंतहियं ति नच्चा, विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ॥ १६ ॥ कामं तु देवीभिर्विभूषिताभिः, न शंकितः क्षोभयितुं त्रिगुप्ताः । तथाप्येकान्तहितमिति ज्ञात्वा, विविक्तवासो मुनीनां प्रशस्तः ॥ १६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२२७] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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