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________________ पदार्थान्वयः-कामं-अति वा अनुमत, देवीहिं- देवियां, विभूसियाहिं- वेष-भूषा से युक्त, न चाइया- समर्थ नहीं हो सकीं, खोभइ - क्षुब्ध करने को संयम से गिराने को, तिगुत्ता- मन, वचन और शरीर से गुप्त हैं, तहा वि- तो भी, एगंतहियं - एकान्त हित, ति- इस प्रकार, नच्चा - जानकर, विवित्तवासो-एकान्त-वास ही, मुणिणं-मुनियों के लिए, पसत्थो - प्रशस्त है। मूलार्थ - मन, वचन और काया से गुप्त रहने वाले जिस परम संयमी साधु को वेष-भूषा से युक्त देवांगनाएं भी क्षुब्ध नहीं कर सकतीं, अर्थात् संयम से गिरा नहीं सकतीं, ऐसे साधु के लिए भी एकान्तवास ही परम हितकारी है, ऐसा जानकर साधु को एकान्त स्थान अर्थात् स्त्री आदि से रहित स्थान में ही निवास करना श्रेष्ठ है। टीका - प्रस्तुत गाथा में परम संयमी अर्थात् सुमेरु की भांति संयम में स्थिर रहने वाले मुनियों को भी एकान्तवास ही करने का जो उपदेश दिया गया है, उसका तात्पर्य साधारण संयम रखने वाले मुनियों को संयम में स्थिर करने और लोक - मर्यादा को सुरक्षित रखने में है, क्योंकि क्षुद्र जीवों का मन निकृष्ट कार्यों में शीघ्र ही प्रवृत्त हो जाता है, और उनकी मानसिक प्रवृत्तियों में अन्तर आते भी कुछ देर नहीं लगती, अतः परम संयमी को भी शास्त्रविहित एकान्तवास रूप मर्यादा का पालन करना आवश्यक है, यह भी इससे ध्वनित किया गया है। अपि शब्द से मानुषी स्त्रियों से रहित स्थान का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि जिस मुनि को मानवियों का तो कहना ही क्या है, देवांगनाएं भी मोहित नहीं कर सकतीं, अर्थात् संयम से चलायमान नहीं कर सकतीं - ऐसे परम योगी मुनि को भी स्त्री, पशु आदि से रहित एकान्त स्थान में ही निवास करने की तीर्थंकर और गणधर देवों ने आज्ञा दी है। जब ऐसे मुनि का हित भी एकान्त निवास में ही है तो सामान्य साधुओं को तो विविक्त स्थान के सेवन का ध्यान अवश्य ही रखना चाहिए, अर्थात् उनको तो कभी भी इस आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। वास्तव में मुनियों का निवास प्रायः निर्जन प्रदेशों में ही होना चाहिए, इसी में उनका कल्याण है। अब स्त्री-त्याग की दुष्करता के विषय में कहते हैं मोक्खाभिकंखिस्स उ माणवस्स, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए, जहित्थिओ बालमणोहराओ ॥ १७ ॥ मोक्षाभिकांक्षिणस्तु मानवस्य, संसारभीरोः स्थितस्य धर्मे । ++ नैतादृशं दुस्तरमस्ति लोके, यथा स्त्रियो बालमनोहराः ॥ १७ ॥ पदार्थान्वयः - मोक्खाभिकंखिस्स - मोक्ष के अभिलाषी, माणवस्स- मनुष्य को, संसारभीरुस्स-संसार से डरने वाले को, धम्मे-धर्म में, ठियस्स-स्थित को, एयारिसं - इसके समान, दुत्तरं - दुस्तर कार्य, लोए - लोक में, न- नहीं, अत्थि - है, जह-जैसे, इत्थिओ - स्त्रियां हैं, बालमणोहराओ- बाल जीवों के मन को हरने वाली, उ-वितर्क में । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २२८] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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