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________________ पदार्थान्वयः-वा-यदि, निउणं-निपुण, सहायं-सहचर, न लभेज्जा-प्राप्त न होवे, गुणाहियं-गुणों से अधिक, वा-अथवा, गुणओ-गुणों से, सम-समान, वा-विकल्प अर्थ में है, एगो वि-अकेला ही, पावाइं-पापानुष्ठान का, विवज्जयंतो-त्याग करता हुआ, कामेसु-काम-भोगों में, असज्जमाणो-आसक्त न होता हुआ, विहरेज्ज-विचरण करे। मूलार्थ-यदि गुणों से अधिक अथवा समान निपुण सहायक न मिले तो अकेला ही पापानुष्ठान का परित्याग करता हुआ और काम-भोगादि में आसक्त न होता हुआ विचरण करे। . टीका-यदि निपुणबुद्धि मित्र न मिले तो काम-भोगों में आसक्ति न रखता हुआ और पापानुष्ठान का त्याग करके अकेला ही विचरण करे। कारण यह है कि यदि साधक मूर्ख अथवा अगीतार्थ को मित्र बना लेगा तो अपने ज्ञानादि गुणों का नाश कर लेगा तथा उनके वश में पड़ा दुःखी होकर ज्ञानादि के मार्ग से पराङ्मुख हो जाएगा। इस सूत्र से यह शिक्षा मिलती है कि जो अपने से गुणों में अधिक अथवा समान हो उसे ही मित्र बनाना चाहिए, परन्तु यह कथन गीतार्थविषयक है। वर्तमान समय में एकाकी विहार करने का आगम में निषेध है, इसलिए यह अपवादसूत्र समझना चाहिए। जैसे मध्य का ग्रहण करने से आदि और अन्त दोनों का ग्रहण हो जाता है, उसी प्रकार आहार और वसती के विषय में भी कथंचित् कारण की अपेक्षा से अपवाद जान लेना चाहिए। सारांश यह है कि गुणी पुरुषों का संग करता हुआ साधक मूर्खजनों का संग छोड़ता हुआ संयममार्ग में गमन करे। अब दुःख के परस्पर कारणों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि - जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ ६ ॥ यथा चाण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च । एवमेव मोहायतनां खलु तृष्णां, मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-जहा-जैसे, बलागा-बलाका, अंडप्पभवा-अंडे से उत्पन्न होती है, य-और, जहा-जैसे, अंडं-अंडा, बलागप्पभवं-बलाका से उत्पन्न होता है, एमेव-इसी प्रकार, खु-निश्चय ही, तण्हा-तृष्णा, मोहाययणं-मोह की उत्पत्ति का स्थान है, च-और, मोह-मोह को, तण्हाययणं-तृष्णा की उत्पत्ति का स्थान, वयंति-कहते हैं। मूलार्थ-जैसे बलाका की उत्पत्ति अंडे से और अंडे की उत्पत्ति बलाका से होती है, उसी प्रकार मोह की उत्पत्ति तृष्णा से और तृष्णा की उत्पत्ति का स्थान मोह होता है। टीका-जिस प्रकार अंडे से बलाका अर्थात् बगुला पक्षी उत्पन्न होता है और बलाका से अंडे की उत्पत्ति होती है, ठीक उसी प्रकार मोह तृष्णा को उत्पन्न करता है और तृष्णा से मोह की उत्पत्ति होती है। जिसके प्रभाव से आत्मा मूढ़ता को प्राप्त हो जाए, उसका नाम मोह है। मिथ्यात्व से युक्त दुष्ट ज्ञान उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२२०] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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