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________________ ज्ञानप्राप्ति की इच्छा रखने वाले के अन्य कृत्यों का वर्णन करते हैं, यथा - आहारंमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ ४ ॥ • आहारमिच्छन्मितमेषणीयं, साहाय्यमिच्छेन्निपुणार्थबुद्धिम् । निकेतमिच्छेत् विवेकयोग्य, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥४॥ पदार्थान्वयः-मियं-प्रमाणपूर्वक और, एसणिज्जं-एषणीय, आहार-आहार की, इच्छे-इच्छा करे तथा, निउणत्थबुद्धिं-निपुणार्थबुद्धि, सहायं-सहायक की, इच्छे-इच्छा करे, विवेगजोग्गं-स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से रहित, निकेयं-स्थान की, इच्छेज्ज-इच्छा करे, समाहिकामे-समाधि की इच्छा वाला, तवस्सी-तपस्वी, समणे-श्रमण-साधु। मूलार्थ-समाधि की इच्छा रखने वाला तपस्वी साधु मित-प्रमाण-युक्त और एषणीय आहार की इच्छा करे तथा निपुणार्थ बुद्धि वाले साथी की इच्छा करे और स्त्री, पशु तथा नपुंसक आदि से रहित एकान्त स्थान की इच्छा करे। टीका-जो भिक्षु परिमित और निर्दोष आहार की इच्छा करता है वही गुरु और वृद्ध पुरुषों की सेवा तथा ज्ञानादि की आराधना में समर्थ हो सकता है, कारण यह है कि जिसका भोजनविधि में विवेक नहीं, वह सेवा और ज्ञानादि की प्राप्ति में सफल-मनोरथ नहीं हो सकता। सहचर अर्थात् साथी भी उसको बनाना चाहिए जो कि तत्त्व के ग्रहण और विवेचन में निपुण हो। कारण यह है कि यदि स्वेच्छाचारी और मूर्ख को मित्र बना लिया गया तो, न तो वह वृद्धों की सेवा करने देगा और न ज्ञानादि की प्राप्ति ही होने देगा। वसती अर्थात् उपाश्रय इस प्रकार का स्वीकार करे कि जिस में स्त्री, पशु और नपुंसक तथा मन में विकृति उत्पन्न करने वाले अन्य किसी पदार्थ का संसर्ग न हो। यदि निवासस्थान में उक्त प्रकार के पदार्थों का संयोग होगा तो साधु गुरु और वृद्ध पुरुषों की सेवा से वंचित रह जाता है। कारण यह है कि उन पदार्थों में आसक्त हो जाने पर अन्यत्र दृष्टि नहीं जाती, इसलिए समाधि की इच्छा रखने वाले तपस्वी साधु को इन पूर्वोक्त बातों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए, तभी समाधि की सम्यक् प्राप्ति हो सकती है तथा द्रव्यसमाधि तो क्षीर, शर्करा आदि पदार्थों के परस्पर अविरोध भाव से मिलने पर होती है और भाव-समाधि ज्ञानादि की प्राप्ति से हो सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में भावसमाधि का ही कथन किया गया है। __यदि दैववशात् पूर्वोक्त सहायक आदि साधन न मिलें तो उस समय साधु का जो कर्तव्य है, अब उसका वर्णन करते हैं न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एगो वि पावाइं विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ ५ ॥ न वा लभेत निपुणं सहायं, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयन्, विहरेत् कामेष्वसजन् ॥ ५ ॥ . उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२१९] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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