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का नाम ही मोह है। उसी के द्वारा फिर तृष्णा की उत्पत्ति हो जाती है। जब मोह न रहा, तब तृष्णा का क्षय भी साथ ही हो जाता है। इसी प्रकार तृष्णा के द्वारा मोह की उत्पत्ति हो जाती है। अतएव इनका परस्पर में हेतुहेतुमद्भाव सम्बन्ध सिद्ध हो गया। इसलिए एक-एक का क्षय होने से दूसरे का क्षय साथ ही माना जाता है। जैसे-देवदत्त पढ़ेगा तो पण्डित बन जाएगा और जब पठन क्रिया का अभाव हुआ तो पंडितपद का अभाव भी साथ ही मानना पड़ेगा। तद्वत् मोह और तृष्णा का परस्पर सम्बन्ध कथन किया गया है। यहां पर तृष्णा शब्द से राग और द्वेष दोनों का ग्रहण अभीष्ट है।
अब इनकी दुःखहेतुता का वर्णन करते हैं, यथारागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई-मरणं वयंति ॥ ७ ॥
रागश्च द्वेषोऽपि च कर्मबीजं, कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति ।
कर्म च जातिमरणस्य मूलम्, दुःखं च जातिमरणं वदन्ति ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः-रागो-राग, य-और, दोसो-द्वेष, वि-अपि-समुच्चयार्थक है, य-पुनः, कम्म-कर्म, बीयं-बीज है, च-फिर, कम्म-कर्म, मोहप्पभवं-मोह से उत्पन्न हुआ, वयंति-कहते हैं, च-फिर, कम्म-कर्म, जाई-जाति-जन्म, मरणस्स-मृत्यु का, मूलं-मूल है, च-पुनः, जाई-जन्म, मरणं-मृत्यु, दुक्खं-दुःख का हेतु, वयंति-कहते हैं।
मूलार्थ-राग और द्वेष दोनों कर्म के बीज हैं, कर्म मोह से उत्पन्न होता है, कर्म जन्म और मरण का मूल है तथा जन्म और मृत्यु दुःख के हेतु कहे गए हैं। ___टीका-माया और लोभ रूप राग, क्रोध और मान रूप द्वेष, ये दोनों कर्म के बीज हैं अर्थात् कर्मोपार्जन में ये दोनों ही कारणभूत माने जाते हैं। अपि च-मोह से कर्म की उत्पत्ति होती है और कर्म को जन्म तथा मृत्यु का कारण कहा है। तात्पर्य यह है कि जन्म और मृत्यु का मूल कर्म है। जन्म और मरण ये दु:ख के कारण प्रसिद्ध ही हैं। तथा च-जन्म-मरण का अभाव होने से दुःख का अभाव हो जाता है और जन्म-मरण का अभाव कर्म के नाश पर निर्भर है। कर्म का नाश मोह के अन्त से होता है तथा मोह का अन्त राग-द्वेष के अन्त की अपेक्षा रखता है। इसलिए प्रथम राग और द्वेष का अन्त करना चाहिए जिससे कि मोह और तज्जन्य कर्म तथा कर्मजन्य जन्म-मरण का अन्त हो सके। किसी-किसी स्थान पर दुःख शब्द कर्म और संसार का वाची भी ग्रहण किया गया है, परन्तु यहां पर तो दु:ख शब्द केवल असातावेदनीय कर्म से उत्पन्न होने वाली असुखरूप अवस्था का ही बोधक है जिसका प्रतिकूलता से वेदन किया जाता है।
अब दुःख के कारणभूत मोहादि के त्याग के विषय में वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥८॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २२१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं