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________________ दिखाना, १६. अन्न-पानी की निमंत्रणा पहले छोटों को करना, १७. गुरु से बिना पूछे किसी को सरस भोजन देना, १८. गुरु के साथ भोजन करते समय स्वयं शीघ्र - शीघ्र, अच्छा-अच्छा भोजन कर लेना, १९. गुरु के बुलाने पर न बोलना, २०. गुरु के बुलाने पर आसन पर बैठे हुए उत्तर देना, २१. आसन पर बैठे हुए ही यह कहना कि क्या कहते हो, २२. गुरु को तूं कहना, २३. यदि गुरु कहे कि तुम यह काम करो, इससे कर्मों की निर्जरा होती है, इसके उत्तर में यह कहना कि तुम ही कर लो, २४. गुरु की कथा को प्रसन्नता - - पूर्वक न सुनना, २५. गुरु की कथा में भेद उत्पन्न करना, २६. कथा में छेद उत्पन्न करना, २७. उसी सभा में गुरु की बुद्धि को न्यून दिखाने के लिए उसी प्रकरण की विस्तृत व्याख्या करना, २८. गुरु के शय्या - संस्तारक आदि को पैर का स्पर्श हो जाने पर बिना क्षमायाचना के चले जाना, २९. गुरु के आसन पर उनकी आज्ञा के बिना बैठना, ३०. गुरु के आसन पर बिना आज्ञा के शयन करना, ३१. गुरु से ऊंचे आसन पर बैठना, ३२. बड़ों की शय्या पर खड़े रहना और बैठना, ३३. गुरु के सम आसन करना। ये ३३ आशातनाएं हैं जिनका टालना साधु के लिए अत्यन्त आवश्यक है। सारांश यह है कि ३१ प्रकार के सिद्धों के गुणों में, उक्त ३२ प्रकार के योगसंग्रहों में तथा उक्त ३३ प्रकार की आशातनाओं में, जो भिक्षु निरन्तर उपयोग रखता है अर्थात् गुणों के सम्पादन में, योगसंग्रहों के संचय में और आशातनाओं के टालने में यत्न करता है, वह इस संसारचक्र से छूट जाता है। अब अध्ययन की समाप्ति करते हुए कहते हैं 1 इय एएसु ठाणेसु, जे भिक्खू जयई सया । खिप्पं से सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पण्डिए ॥ २१ ॥ त्ति बेमि । इति चरणविही समत्ता ॥ ३१ ॥ इत्येतेषु स्थानेषु, यो भिक्षुर्यतते सदा । क्षिप्रं स सर्वसंसाराद्, विप्रमुच्यते पंण्डितः ॥ २१ ॥ इति ब्रवीमि । इति चरणविधिः समाप्तः ॥ ३१ ॥ पदार्थान्वयः - इय- इस प्रकार, एएसु-इन, ठाणेसु - स्थानों में, जे जो, भिक्खू - भिक्षु, सया-सदैव, जयई-यत्न करता है, खिप्पं- शीघ्र ही, से - वह, सव्वसंसारा - सर्व संसार से, विप्पमुच्चइ - छूट जाता है, पंडिए-पंडित-विचारशील, त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूं। इति चरणविही समत्ता - यह चरणविधि समाप्त हुई। मूलार्थ - उक्त प्रकार से इन पूर्वोक्त स्थानों में जो भिक्षु निरन्तर उपयोग रखता है वह पंडित इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२१४] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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