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यत्तदित्वरिकं तपः, तत्समासेन षड्विधम् । श्रेणितपः प्रतरतपः, घनश्च तथा भवति वर्गश्च ॥१०॥
ततश्च वर्गवर्गः, पञ्चमं षष्ठकं प्रकीर्णतपः । " मनईप्सितं चित्रार्थं, ज्ञातव्यं भवतीत्वरिकम् ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, सो-वह, इत्तरिय-इत्वरिक, तवो-तप है, सो-वह, समासेण-संक्षेप से, छव्विहो-छः प्रकार का है, सेढितवो-श्रेणी-तप, पयरतवो-प्रतर-तप, य-तथा, घणो-घन-तप, तह-उसी प्रकार, वग्गो-वर्ग-तप, होइ-होता है, य-समुच्चयार्थक है, तत्तो-तदनन्तर, वग्गवग्गो-वर्गवर्ग-तप, य-पुनः, पंचमो-पांचवां है, य-और, पइण्णतवो-प्रकीर्ण-तप, छट्ठओ-छठा है, मणइच्छिय-मनोवाञ्छित, चित्तथो-विचित्र स्वर्ग-अपवर्ग फल को देने वाला, नायव्वो-जानना चाहिए, इत्तरिओ-इत्वरिक, होइ-होता है। ..
मूलार्थ-जो इत्वरिक तप है वह संक्षेप से छः प्रकार का है। यथा-१. श्रेणि-तप, २. प्रतर-तप, ३. घन-तप, ४: वर्ग-तप, ५. वर्ग वर्ग-तप और ६. प्रकीर्ण-तप। इस प्रकार नाना प्रकार के मनोवांछित स्वर्गापवर्गादि फलों को देने वाला यह इत्वरिक सावधिक तप है।
टीका-काल मर्यादा को लिए हुए जो पहला इत्वरिकनामक तप है उसके श्रेणि-तप आदि ऊपर बताए गए छः भेद हैं। ,
(१) श्रेणितप-एक उपवास से,लेकर छः मासपर्यन्त जो तप (उपवास) किया जाता है उसे श्रेणि-तप कहते हैं। ___ (२) प्रतर-तप-श्रेणि से गुणाकार किए हुए श्रेणि-तप को प्रतर तप कहा जाता है। यथा-एक उपवास और दो, तीन, चार उपवास। इस प्रकार इसमें श्रेणियों की स्थापना की जाती है। इस श्रेणि को चार से गुणा करने पर षोडशपदात्मक प्रतर होता है, वही प्रतर-तप है। इसकी स्थापना निम्नलिखित यंत्र द्वारा जान लेनी चाहिए।
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(३) घन-तप-इस षोडशपदात्मक प्रतर को श्रेणि से गुणाकार करने पर घन-तप होता है जिसके ६४ कोष्ठक बनते हैं। यंत्र की स्थापना पहले जैसी जाननी चाहिए।
(४) वर्ग-तप-घन-तप को घन से गुणा करने पर अर्थात् ६४ को ६४ से गुणा देने पर ४०९६
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७७] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं