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टीका-इस गाथा में बाह्य तप के भेदों का उल्लेख किया गया है तथा इन भेदों में से प्रत्येक का वर्णन आगे की गाथाओं में भली-भांति किया जाएगा, प्रस्तुत गाथा में तो इनका केवल नाम मात्र दिया गया है जो कि वर्णन-शैली के सर्वथा अनुरूप ही है। अब क्रम-प्राप्त प्रथम अनशन-व्रत का वर्णन करते हैं
इत्तरिय मरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे। इत्तरिय सावकंखा, निरवकंखा उ बिइज्जिया ॥ ९ ॥ इत्वरिक मरणकालं च, अनशनं द्विविधं भवेत्।
इत्वरिकं सावकाङ्क्ष, निरवकाझं तु द्वितीयम् ॥ ९ ॥ पदार्थान्वयः-इत्तरिय-थोड़े समय तक, य-और, मरणकाला-मरण-काल-पर्यन्त, अणसणा-अनशन, दुविहा-दो प्रकार का, भवे-होता है, इत्तरिया-थोड़े समय का, सावकंखा-आकांक्षा-सहित है, बिइज्जिया-द्वितीय, निरवकंखा-आकांक्षा से रहित होता है, उ-भिन्न क्रम में है।
मूलार्थ-अनशन दो प्रकार का है-(१) इत्वरिक अर्थात् थोड़े समय का और (२) मरण-कालपर्यन्त। इनमें प्रथम आकांक्षा सहित अर्थात् अवधि-सहित और दूसरा निराकांक्ष अर्थात् अवधि से रहित होता है।
टीका-अनशन तप के दो भेद हैं-एक थोड़े समय का, दूसरा मरणपर्यन्त का। इनमें इत्वरिंक अर्थात् थोड़े समय का जो अनशन है वह सावधिक है, अर्थात् 'अमुक मर्यादा या नियत काल तक होता है। नियत काल के पश्चात् उसमें भोजन करने की आकांक्षा बनी रहती है, इसलिए वह सावकांक्ष कहलाता है।
मृत्युपर्यन्त जो अनशन अर्थात् निराहार उपवास है, वह निरवकांक्ष है, क्योंकि उसमें जीवन-पर्यन्त आहार की आकांक्षा नहीं होती। इत्वरकालिक अनशन तप की अवधि दो घड़ी से लेकर छः मास तक मानी गई है। दूसरे की कोई अवधि नहीं होती है। इसलिए पहले में भोजन की आकांक्षा विद्यमान है और दूसरे में उसका अभाव है। 'मरणकाला अणसण' यहां पर स्त्रीलिंग का निर्देश प्राकृत के कारण से किया गया है।
अब उद्देश्यनिर्देशन्याय से अर्थात् उद्देश्य के अनुसार ही निर्देश किया जाता है, इस न्याय का आश्रयण करके प्रथम इत्वरिक-तप के भेदों का वर्णन करते हैं। यथा -
जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छव्विहो । सेढितवो पयरतवो, घणो य तह होइ वग्गो य ॥ १० ॥ तत्तो य वग्गवग्गो, पंचमो छट्ठओ पइण्णतवो । मणइच्छियचित्तत्थो, नायव्वो होइ इत्तरिओ ॥ ११ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७६ ] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं