________________
कोष्ठक बनते। यही वर्ग - तप है।
(५) वर्गवर्ग - तप-वर्ग को वर्ग से गुणाकार करने पर वर्गवर्ग-तप होता है। तात्पर्य यह है कि ४०९६ को इतने ही अंकों से गुणने पर १६७७७२२१६ कोष्ठक होते हैं। इसी का नाम वर्गवर्ग-तप है। इस तप की श्रेणी भी पदचतुष्ट्यरूप पहले जैसी ही जाननी चाहिए ।
(६) प्रकीर्ण-तप-यह तप श्रेणिबद्ध नहीं होता, किंतु अपनी शक्ति के अनुसार किया जाता है। इसके अनेक भेद हैं। यथा - नमस्कारादिसहित, पूर्वपुरुष - आचरित, यवमध्य, वज्रमध्य और चन्द्रप्रतिमा आदि अनेक प्रकार के तपों का इसमें समावेश है। यह इत्वरिक-तप अनेक प्रकार के स्वर्ग, अपवर्ग और तेजो-लेश्या आदि मनोवांछित फलों का देने वाला कहा गया है।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि तप कर्म के अनुष्ठान का जो शास्त्र में विधान है, वह अपनी इच्छा और शक्ति के अनुसार करने का विधान है, न कि किसी हठ या रोष आदि से करने का आदेश है। कारण यह है कि अपनी इच्छा अर्थात् आत्म-शुद्धि को लक्ष्य में रखकर अपनी शक्ति के अनुसार जो तप किया जाता है, वही तप उत्तम और अभीष्ट फल को देने वाला होता है। इससे विपरीत जो तप किया जाता है वह निष्फल होने के अतिरिक्त अनिष्ट फलप्रद भी होता है।
अब यावत्कालिक अनशन के विषय में कहते हैं
-
जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया । सवियारमवियारा, कायचिट्ठ पई भवे ॥ १२ ॥ यत्तदनशनं मरणे, द्विविधं लद्व्याख्यातम् । सविचारमविचार, कायचेष्टां प्रति भवेत् ॥ १२ ॥
पदार्थान्वयः - जा - जो, सा- वह, मरणे-म -मरण-विषयक, अणसणा-अनशन है, सा- वह, दुविहा- दो प्रकार का, वियाहिया - प्रतिपादन किया गया है, सवियारं- चेष्टा-रूप- विचार - सहित, अवियारा - चेष्टारूप - विचार - रहित, कायचिट्ठ- - काय की चेष्टा के, पई - प्रति - आश्रय से, भवेहोता है।
मूलार्थ - मरण-काल- पर्यन्त के अनशन - तप के भी कायचेष्टा को लेकर सविचार और अविचार ये दो भेद वर्णन किए गए हैं।
टीका - दूसरा अनशन - तप यावत्कालिक अर्थात् आयु पर्यन्त का होता है । उसके भी सविचार और अविचार, ये दो भेद हैं।
१. सविचार - शरीर की चेष्टा के साथ जो अनशन किया जाता है, उसको सविचार कहते हैं।
२. अविचार - जो शरीर की चेष्टा के बिना अनशन किया जाता है, वह अविचार कहलाता है। ये दोनों भेद शरीर की चेष्टा को दृष्टि में रखकर ही किए गए हैं। कारण कि भक्तप्रत्याख्यान और इंगिनीमरण, इन दोनों प्रकार के अनशन तपों में काया की उद्वर्तन और परिवर्तनादि चेष्टाओं का परित्याग
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७८ ] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं'