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________________ की यदि पुरुष भाव को प्राप्त हुआ स्त्री वा नपुंसक, अथवा स्व-स्व वेद के दो-दो खंड, तदनन्तर प्रक्षेप किया हुआ वेद तीसरे खंड के साथ संज्वलन को क्षय कर देता है। इसी भांति पूर्व-पूर्वांशसहित उत्तर-उत्तर का संज्वलनलोभपर्यन्त क्षय करता है। तीसरे खंड के संख्यात खंड करके पृथक्-पृथक् काल-भेद से क्षय करता है, परन्तु सब का क्षयकाल अन्तर्मुहूर्त ही जानना चाहिए। कारण यह है कि मुहूर्त के भी असंख्यात भेद हैं। इसके अतिरिक्त चरम खंड के भी फिर असंख्येय खंड करता है। उनको प्रति समय एक-एक से क्षय कर देता है फिर चरम खंड असंख्येय सूक्ष्म खण्ड करके उसी प्रकार क्षय करता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म को क्षय करके अन्तर्मुहूर्त में यथाख्यातचारित्र का अनुभव करता हुआ छद्मस्थ वीतरागता को द्वि-चरम समय में प्राप्त करता है। प्रथम समय में निद्रा, प्रचला, नाम देवगत्यादि नाम कर्म की प्रकृतियों का क्षय करता है। इसी प्रकार पञ्चविध ज्ञानावरणीय, नवविध दर्शनावरणीय और पांच प्रकार के अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का एक साथ ही क्षय कर देता है। अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न, परिपूर्ण, निरावरण और वितिमिर आदि सब केवलज्ञान और केवलदर्शन के विशेषण हैं। सयोगी-केवली नामक तेरहवें गुणस्थानवी जीव चारों घातिकर्मों का क्षय करके लोका-लोकप्रकाशी ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। परन्तु जब तक उसका शरीर रहता है तब तक वह शरीर-सम्बन्धी क्रियाएं करता है, परन्तु वे क्रियाएं आसक्ति-रहित होने से उसके लिए बन्ध का कारण नहीं बन पातीं। किन्तु आत्म-प्रदेशों से उन शारीरिक कर्मों का बन्ध घट के साथ आकाश के सम्बन्ध की भांति होता है और उनका स्पर्श भी इसी प्रकार का होता है, जैसे पाषाण की दीवार के साथ सिकता-बाल आदि का स्पर्श होता है। तात्पर्य यह है कि जैसे पत्थर की दीवार से स्पर्श करते ही रेत बिखर जाती है, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों से स्पर्श करते ही वे कर्म आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। इस विषय का अधिक विवेचन प्रज्ञापना-सूत्र और कर्म-प्रकृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। यहां पर विस्तार भय से उल्लेख नहीं किया। जिज्ञासु जन वहां से देख लें। __ अब कर्मरहित आत्मा की आगामी दशा का अर्थात् अयोगी-केवली अवस्था का वर्णन करते हैं - अह आउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तद्धावसेसाए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइं सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरंभइ, वइजोगं निरंभइ, कायजोगं निरंभइ, आणपाणनिरोहं करेइ। ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारणद्धाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुक्कज्झाणं झियायमाणे वेयणिज्ज, आउयं, नाम, गोत्तं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ ॥ ७२ ॥ अथ यावदायुः पालयित्वाऽन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषायुष्यकः (सन् ) योगनिरोधं करिष्यमाण: सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति-शुक्ल-ध्यानं ध्यायन् 'तत्प्रथमतया मनोयोगं निरुणद्धि, (मनोयोगं निरुध्य) वाग्योगं निरुणद्धि, काययोगं निरुणद्धि, आनापाननिरोधं करोति। ईषत्पंचह्रस्वाक्षरोच्चारणाद्धायाञ्चानगारः समुच्छिन्नक्रियमनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायन् वेदनीयमायुर्नाम गोत्रञ्चैतान् उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १६६] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अझंयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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