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________________ अब काय-समाधारण के विषय में कहते हैं - कायसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कायसमाहारणयाए चरित्तपज्जवे विसोहेइ। चरित्तपज्जवे विसोहित्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ। अहक्खायचरित्तं विसोहित्ता चत्तारि कम्मसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ ५८ ॥ कायसमाधारणया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कायसमाधारणया चारित्रपर्यवान्विशोधयति। चारित्रपर्यवान्विशोध्य यथाख्यातचारित्रं विशोधयति। यथाख्यातचारित्रं विशोध्य चतुरः कर्मांशान् क्षपयति। ततःपश्चात् सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ॥ ५८ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, कायसमाहारणयाए णं-काय-समाधारण से, जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या उपार्जन करता है? कायसमाहारणयाए णं-काय-समाधारण से, चरित्तपज्जवे-चारित्र के पर्यायों की, विसोहेइ-विशुद्धि करता है, चरित्तपज्जवे-चारित्रपर्यायों को, विसोहित्ता-विशुद्ध करके, अहक्खायचरित्तं-यथाख्यातचारित्र की, विसोहेइ-विशुद्धि करता है, अहक्खायचरित्तंयथाख्यातचारित्र की, विसोहित्ता-विशुद्धि करके, चत्तारि-चार, कम्मसे-कर्मांशों का, खवेइ-क्षय करता है, तओ पच्छा-तत्पश्चात्, सिज्झइ-सिद्ध होता है, बुज्झइ-बुद्ध होता है, मुच्चइ-मुक्त हो जाता है, परिनिव्वायइ-परम शांति को प्राप्त होता है, सव्वदुक्खाणं-सर्व दु:खों का, अंतं करेइ-अन्त कर देता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! कायसमाधारणा से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? . उत्तर-काय-समाधारणा से जीव चारित्र के पर्यायों की विशुद्धि करता है, चारित्र-पर्यायों को विशुद्ध करके यथाख्यातचारित्र की विशुद्धि करता है एवं यथाख्यातचारित्र के विशोधन से चारों अघाति कर्मों का क्षय करता है। तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परम शांति को प्राप्त होता हुआ सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त अर्थात् सर्वथा नाश कर देता है। टीका-प्रस्तुत गाथा में काय-संयम का फल वर्णन किया गया है। संयम-योग में शरीर को स्थापना करना काय-समाधारणा है। इसके सतत अभ्यास से जीव को चारित्र-पर्यायों के विशोधन का अवसर प्राप्त होता है, अर्थात् इससे क्षयोपशमरूप चारित्र-भेदों को विशुद्ध कर लेता है। तात्पर्य यह है कि उन्मार्गप्रवृत्ति के निरोध होने से उनकी शुद्धि हो जाती है। चारित्र-पर्यायों के विशुद्ध होने से यथाख्यातचारित्र की विशुद्धि हो जाती है। तदनन्तर चारों अघाती-कर्मों का क्षय करके यह जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् अपनी समस्त शक्तियों का विकास करता हुआ सर्व दुःखों का अन्त करके परम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५३] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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