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________________ जीव ज्ञान के पर्यायों को प्राप्त करता है, अर्थात् मति, श्रुत आदि ज्ञानों को तथा ज्ञान की अन्य शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य यह है कि उसका ज्ञान अति निर्मल हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान के पर्यायों को प्राप्त करके यह जीव सम्यक्त्व को विशुद्ध कर लेता है, क्योंकि ज्ञान के निर्मल होने से उसके अन्त:करण में शंका आदि दोषों की उत्पत्ति नहीं होती एवं सम्यक्त्व की विशुद्धि-निर्मलता होने पर मिथ्यात्व का क्षय अवश्यम्भावी है, इसलिए वह जीव सम्यक्त्व की विशुद्धि के साथ ही मिथ्यात्व का विनाश भी कर डालता है। अब वचन की समाधारणा के विषय में कहते हैं - वयसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वयसमाहारणयाए वयसाहारणदंसणपज्जवे विसोहेइ। वयसाहारणदसणपज्जवे विसोहित्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ, दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ ॥ ५७ ॥ . वाक्समाधारणया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? __ वाक्समाधारणया वाक्साधारण-दर्शनपर्यवान् विशोधयति। वाक्साधारणदर्शनपर्यवान् विशोध्य सुलभबोधिकत्वं निवर्तयति, दुर्लभबोधिकत्वं निर्जरयति ॥ ५७ ॥ . पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, वयसमाहारणयाए-वचनसमाधारण से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है ? वयसमाहारणयाए-वाक्-समाधारण से, वयसाहारणवचन-साधारण, दंसणपज्जवे-दर्शन पर्यायों की, विसोहेइ-विशुद्धि करता है, वयसाहारणदसणपज्जवे-वचन-साधारण-दर्शनपर्यायों को, विसोहित्ता-विशुद्ध करके, सुलहबोहियत्तं-सुलभबोधि कत्व अर्थात् सुलभ बोधिपन को, निव्वत्तेइ-सम्पादन करता है, दुल्लहबोहियत्तं-दुर्लभ बोधिपन की, निज्जरेइ-निर्जरा करता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! वचन-समाधारण से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-हे भद्र ! वाक्-समाधारण से वचन-साधारण-दर्शन-पर्यायों की विशुद्धि करके सुलभ बोधिभाव की प्राप्ति और दुर्लभ बोधिभाव की निर्जरा हो जाती है। ____टीका-सदैवकाल स्वाध्याय में वचनयोग का स्थापन करना वचन-समाधारण है। शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! वचनयोग की निरन्तर स्वाध्याय में स्थापना करने से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! वचनयोग को स्वाध्याय में लगाने से अथवा वचनयोग का सम्यक् व्यापार करने से दर्शन के पर्यायों की विशुद्धि हो जाती है। तात्पर्य यह है कि स्वाध्याय करने और सम्यक्त्व के भेदों का बार-बार निर्वचन करने से इस जीव का सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। कारण यह है कि द्रव्यानुयोग के सतत अभ्यास से सम्यक्त्व को मलिन करने वाले शंका आदि समस्त दोष दूर हो जाते हैं और उसमें निर्मलता आ जाती है। इस प्रकार जब इस जीव का सम्यक्त्व निर्मल हो गया तब उसको सुलभ बोधिपने की प्राप्ति हो जाती है और दुर्लभ बोधिपना उसका विनष्ट हो जाता है। सुलभ-बोधि-जीव को भवान्तर में सत्य धर्म की प्राप्ति अवश्य होती है। .. उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५२] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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