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कायगुप्ति से यह जीव संवरत्व को प्राप्त करता है और उसके द्वारा पापास्रवों-पाप के मार्गों का निरोध करता है अर्थात् पाप के प्रवाह को रोक देता है। यद्यपि यहां पर वृत्तिकारों ने 'संवरं जणयइ-संवरं जनयति' का 'अशुभंयोगनिरोधरूपं जनयति' ऐसा अर्थ किया है, परन्तु यह अर्थ मनोयोग-प्रतिसंलीनतादि में संघटित. हो सकता है। गुप्तियों में नहीं।
यदि ऐसा कहें कि सूत्र में पापास्रव का निरोध लिखा है, उसमें पुण्य शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, इससे अशुभ योग का निरोध ही सिद्ध होता है। यह कथन भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। कारण यह है कि निश्चय में, पुण्य और पाप दोनों ही आस्रवरूप हैं। अतः बन्ध का कारण होने से दोनों ही पापरूप हैं। पुण्य और पाप के जो दो भेद हैं वे केवल व्यवहार को लेकर हैं। जैसे 'वीतराग' इस पद में राग के साथ द्वेष का भी ग्रहण किया जाता है तथा राग के दूर होने से द्वेष भी दूर हो जाता है। इसी प्रकार पाप के साथ पुण्य का भी ग्रहण हो जाता है, अर्थात् पापास्रव के निरोध में पुण्यास्रव का निरोध भी हो जाता है, इसलिए गुप्ति में निरोध ही प्रधान है।
अब मन के समाधारण का फल- वर्णन करते हैं, यथा - मणसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
मणसमाहारणयाए एगग्गं जणयइ। एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ। नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्तं च निज्जरेइ ॥ ५६ ॥
मनःसमाधारणया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
मनःसमाधारणयैकाग्र्यं जनयति। ऐकाग्र्यं जनयित्वा ज्ञानपर्यवान् जनयति। ज्ञानपर्यवान् जनयित्वा सम्यक्त्वं विशोधयति, मिथ्यात्वञ्च निर्जरयति ॥ ५६ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, मणसमाहारणयाए णं-मन के समाधारण से, जीव-जीव, किं जणयइ-क्या प्राप्त करता है, मणसमाहारणयाए-मन के समाधारण से, एगग्गं-एकाग्रता की, जणयइ-प्राप्ति होती है, एगग्गं जणइत्ता-एकाग्रता को प्राप्त करके, नाणपज्जवे-ज्ञान-पर्यायों का, जणयइ-उपार्जन करता है, नाणपज्जवे जणइत्ता-ज्ञानपर्यवों को प्राप्त करके, सम्मत्तं-सम्यक्त्व की, विसोहेइ-विशुद्धि करता है, च-और, मिच्छत्तं-मिथ्यात्व की, निज्जरेइ-निर्जरा करता है।
.. मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! मन के समाधारण (समाधि में स्थापित करने ) से जीव किस गुण को प्राप्त करता है ?
उत्तर-हे भद्र ! मन की समाधारणा से एकाग्रता की प्राप्ति होती है, एकाग्रता को प्राप्त करके यह जीव ज्ञान के पर्यायों को प्राप्त करता है। ज्ञान के पर्यायों को प्राप्त करने के अनन्तर सम्यक्त्व की शुद्धि तथा मिथ्यात्व को क्षय करता है।
टीका-शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! मन की समाधारणा अर्थात् जिन-प्रवचन के अनुसार मन को समाधि में स्थापित करने से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? तब गुरु उत्तर देते हैं कि हे भद्र ! मन की समाधि से एकाग्रता की प्राप्ति होती है और जब एकाग्रता की प्राप्ति हो गई, तब यह
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५१] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं