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________________ वाग्गुप्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति ? वाग्गुप्त्या निर्विकारत्वं जनयति । निर्विकारो हि जीवो वाग्गुप्तोऽध्यात्मयोगसाधनयुक्तश्चापि भवति ॥ ५४ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, वयगुत्तयाए णं - वचन - -गुप्ति से, जीवे - जीव, किं जणय - क्या प्राप्त करता है? वयगुत्तयाए णं-वचनगुप्ति से निव्विकारत्तं निर्विकारता की, जणयइ-प्राप्ति होती है, निव्विकारे णं-निर्विकारी, जीवे - जीव, वइगुत्ते - वचनगुप्त और अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते- - अध्यात्म - योग-साधना में युक्त, यावि- भी, भवइ - होता है। 2 मूलार्थ - प्रश्न - हे पूज्य ! वचनगुप्ति से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर - वचन - गुप्ति से जीव को निर्विकारत्व-निर्विकारभाव की प्राप्ति होती है और निर्विकारी जीव वचन से गुप्त होने के अतिरिक्त अध्यात्मयोग के साधन से भी युक्त होता है। टीका- शिष्य पूछता है कि पूज्य ! वचन संयम से जीव को क्या फल प्राप्त होता है ? गुरु उत्तर देते हैं कि वचन का संयम करने से यह जीव निर्विकारी अर्थात् विकारहित हो जाता है, अर्थात् वचन के द्वारा जो विकार - क्लेश उत्पन्न होते हैं वे सब दूर हो जाते हैं। निर्विकारी होने से जीव अध्यात्मयोग के साधनों से युक्त हो जाता है, अथवा यों कहिए कि अध्यात्मयोग-साधनों द्वारा वचन-सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। वचनयोग के सम्यक् निरोध का नाम वचनगुप्ति है, फिर वह योग चाहे प्रशस्त हो चाहे अप्रशस्त । अब कायगुप्ति के सम्बन्ध में कहते हैं कायगुत्ता णं भंते! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ ॥ ५५ ॥ कायगुप्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कायगुप्त्या संवरं जनयति । संवरेण कायगुप्तः पुनः पापास्त्रवनिरोधं करोति ॥ ५५ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, कायगुत्तयाए णं- कायगुप्ति से, जीवे जीव, किं जणयइ - किस गुण को प्राप्त करता है, कायगुत्तयाए- कायगुप्ति से, संवरं संवर की, जणयइ - उपलब्धि होती है, संवरेणं-संवर के द्वारा, कायगुत्ते - कायगुप्ति वाला जीव, पुणो-फिर, पावासवनिरोहं-पापास्रव का निरोध, करेइ- करता है। मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कायगुप्ति से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर - कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त करता है और संवर के द्वारा कायगुप्ति वाला जीव सर्व प्रकार के पापास्त्रवों का निरोध कर देता है। टीका-कायिक व्यापार के निरोध का नाम कायगुप्ति है। इसका फल संवरत्व की प्राप्ति है अर्थात् उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५०] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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