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पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, जोगसच्चेणं-योगसत्य से, जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या प्राप्त करता है? जोगसच्चेणं-योगसत्य से, जोगं विसोहेइ-योगों की शुद्धि करता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! योग-सत्य से किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर-हे शिष्य ! योगसत्य अर्थात् सत्ययोग से योगों की विशुद्धि होती है।
टीका-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का नाम योग है। सत्ययोग प्राप्त होने पर मन, वचन और शरीर के व्यापार शुद्ध हो जाते हैं।
अब मनोगुप्ति के विषय में कहते हैं - मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ। एगग्गचित्तेणं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ ॥ ५३ ॥
मनोगुप्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
मनोगुप्त्या जीव ऐकाग्रयं जनयति। एकाग्रचित्तेन जीवो मनोगुप्तः संयमाराधको भवति ॥ ५३ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, मणगुत्तयाए णं-मनोगुप्ति से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण का उपार्जन करता है? मणगुत्तयाए णं-मनोगुप्ति से, जीव-जीव, एगग्गं-एकाग्रता की, जणयइ-प्राप्ति करता है, एगग्गचित्तेणं-एकाग्रचित्त से, जीवे-जीव, मणगुत्ते-गुप्त मन वाला, संजमाराहए-संयम का आराधक, भवइ-होता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! मनोगुप्ति से जीव को क्या फल प्राप्त होता है? - उत्तर-हे भद्र ! मनोगुप्ति से चित्त की एकाग्रता होती है और एकाग्र मन वाला जीव संयम का आराधक होता है।
टीका-चित्त की एकाग्रता मनोगुप्ति का फल है और चित्त की एकाग्रता से संयम की आराधना होती है, अतः परम्परया संयम का सम्यक् प्रकार से आराधक होना मनोगुप्ति का फल है। जिस समय सत्य-मनोयोग, असत्य-मनोयोग, मिश्र-मनोयोग और व्यवहार-मनोयोग, इन चारों योगों का निरोध किया जाता है, तब मनोगुप्ति कही जाती है, अतः उक्त प्रकार के चारों योगों का निरोध करना ही मनोगुप्ति है। अपि च-जो लोग अशुभ मनोयोग के निरोध को मनोगुप्ति कहते हैं, उनका कथन युक्ति-युक्त न होने से अप्रामाणिक है, क्योंकि इस प्रकार के निरोध को मन:प्रतिसंलीनता कहा गया है। गुप्तियों का सांगोपांग वर्णन गत २४वें अध्ययन में हो चुका है।
अब वाग्गुप्ति के विषय में कहते हैं - वयगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
वयगुत्तयाए णं निव्विकारत्तं जणयइ। निव्विकारे णं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते यावि भवइ ॥ ५४ ॥
- उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १४९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं