SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधना में यह जीव प्रवृत्त हो जाता है और उक्त धर्म की आराधना इस जीव को परलोक में भी धर्म की प्राप्ति करा देती है, अर्थात् जन्मान्तर में भी वह धर्म का आराधक होता है। यही भाक्सत्य के अनुष्ठान का फल है। अब करण - सत्य के विषय में कहते हैं करणसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? करणसच्चेणं करणसत्तिं जणय । करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ ॥ ५१ ॥ - करणसत्येन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? करणसत्येन करणशक्तिं जनयति । करणसत्ये वर्तमानो जीवो यथावादी तथाकारी चापि भवति ॥ ५१ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, करणसच्चेणं- करणसत्य से, जीवे - जीव, किं जणयइ- क्या उपार्जन करता है, करणसच्चेणं-करणसत्य से, करणसत्तिं - करणशक्ति का, जणयइ- -उपार्जन करता है, करणसच्चे-करणसत्य में, वट्टमाणे- प्रवर्तमान, जीवे - जीव, जहावाई - जैसे कहता है, तहाकारी - उसी प्रकार करने वाला, यावि - भी, भवइ होता है। मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! करणसत्य से अर्थात् सत्यप्रवृत्ति से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर- करण- सत्य से जीव सत्य-क्रिया करने की शक्ति प्राप्त करता है तथा करणसत्य में प्रवृत्त हुआ जीव जैसे कहता है वैसे ही करता भी है। टीका - करणसत्य के फलविषयक किए गए प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि करणसत्य के द्वारा इस जीव में क्रिया-कलाप के करने की शक्ति उत्पन्न होती है और करण - सत्य में प्रवृत्ति करने वाला जीव जिस प्रकर सूत्रोक्त उपदेश करता है उसी प्रकार वह क्रिया करने वाला भी होता है। तात्पर्य यह है कि प्रतिलेखनादि क्रियाओं का जिस प्रकार से आगम में उल्लेख किया गया है उनका करण शक्ति के प्रभाव से सम्यक्तया अनुष्ठान करता हुआ उन क्रियाओं का अपने उपदेश के अनुसार ही यथाविधि पालन करता है, अर्थात् उसका उपदेश और आचरण दोनों समान होते हैं। वह जैसा कहता है वैसा ही करता है। अब योगसत्य के विषय में कहते हैं - जोगसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगसच्चेणं जोगं विसोइ ॥ ५२ ॥ योगसत्येन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? योगसत्येन योगान् विशोधयति ॥ ५२ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१४८] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy