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________________ अब ज्ञान-सम्पन्नता के विषय में कहते हैं - नाणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ। नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरते संसारकंतारे न विणस्सइ। जहा सूई ससुत्ता पडियावि न विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ ॥ नाणविणयतवचरित्तजोगे संपाउणइ, ससमय-परसमय-विसारए य असंघायणिज्जे भवइ ॥ ५९ ॥ ज्ञानसम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? ज्ञानसम्पन्नतया जीवः सर्वभावाभिगमं जनयति। ज्ञानसम्पन्नो हि जीवश्चतुरन्ते संसारकान्तारे न विनश्यति। यथा सूची ससूत्रा पतिताऽपि न विनश्यति। तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यति ॥ ज्ञानविनयतपश्चारित्रयोगान् सम्प्राप्नोति, स्वसमय-परसमय-विशारदश्चासंघातनीयो भवति ॥ ५९ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, नाणसंपन्नयाए णं-ज्ञान-सम्पन्नता से, जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या प्राप्त करता है? नाणसंपन्नयाए णं-ज्ञान सम्पन्नता से, सव्वभावाहिगम-सर्व भावों के अधिगम अर्थात् बोध को, जणयइ-प्राप्त करता है, नाणसंपन्ने [--ज्ञानसंपन्न, जीवे-जीव, चाउरते-चतुर्गतिरूप, संसारकंतारे-संसार-कान्तार में, न विणस्सइ-विनाश को प्राप्त नहीं होता। जहा-जैसे, सूई-सूची, संसुत्ता-सूत्रयुक्त, पडियावि-गिरी हुई भी, न विणस्सइ-नष्ट नहीं होती, तहा-उसी प्रकार, जीवे-लीव, ससुत्ते-श्रुतयुक्त होकर, संसारे-संसार में, न विणस्सइ-विनाश को प्राप्त नहीं होता, अपितु, नाणविणयतवचरित्तजोगे-ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योग को, संपाउणइ-सम्प्राप्त करता है, ससमय-स्वसमय-स्वमत, य-और, परसमय-परसमय-परमत का, विसारए-विशारद होकर, असंघायणिज्जे-माननीय पुरुष, भवइ-होता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान-सम्पन्नता से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर-हे भद्र ! ज्ञान-सम्पन्नता से इस जीव को सर्व भावों अर्थात् पदार्थों का बोध हो जाता है। ज्ञानसम्पन्न जीव चार गतिरूप संसार-कान्तार अर्थात् वन में विनाश को प्राप्त नहीं होता। जैसे डोरे के साथ गिरी हुई सूई खोई नहीं जाती, उसी प्रकार श्रुतज्ञान से युक्त जीव भी संसार में विनाश को प्राप्त नहीं होता, किन्तु ज्ञान, विनय, तप और चारित्रयोग को प्राप्त कर लेता है। फिर स्व और पर-मत का ज्ञाता होकर वह प्रामाणिक पुरुष हो जाता है। टीका-शिष्य ने पूछा कि भगवन् ! ज्ञान-सम्पन्न आत्मा को क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १५४] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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