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________________ लेता है। एकत्वभाव के प्राप्त होने पर वह अल्प भाषण करता है। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ-रूप कषाय भी कम हो जाते हैं तथा अल्प अपराध के हो जाने पर जो 'तूं-तूं' कहा जाता है-जैसे कि 'तूं ने पहले भी ऐसा किया और अब भी वैसे ही करता है' इत्यादि-इस व्यवहार का भी उसमें अभाव होता है। संयम, संवर और समाधि में वह अधिक दृढ़ हो जाता है। सारांश यह है कि सहाय्य का परित्याग करने से जीव परस्पर के विवाद से रहित हो जाता है। उसमें किसी प्रकार के कलह-क्लेश आदि दोषों के उत्पन्न होने की संभावना नहीं रह जाती। इसीलिए उसे 'तूं-तूं' 'मैं-मैं' का भी अवसर प्राप्त नही होता और इसके विपरीत संयम की बहुलता और संवर की प्रधानता तथा ज्ञानादि समाधि की उत्पत्ति होती है। इसलिए एकत्वभाव को प्राप्त हुआ जीव क्लेशादि से मुक्त होकर संयम और समाधि-युक्त होता हुआ शांति-पूर्वक इस संसार में विचरता है। परन्तु यहां पर इतना स्मरण रहे कि यह उक्त कथन वैराग्य के आश्रित होकर एकत्वभाव प्राप्त करने से सम्बन्ध रखता है और यदि किसी रोष आदि के कारण एकत्वभाव को अंगीकार किया जाए तो उससे गुण प्राप्ति के बदले अनेक प्रकार के दोषों के ही उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अतः साहाय्य-प्रत्याख्यान में वैराग्य को ही मुख्य कारण माना जाना चाहिए। अब भक्त-प्रत्याख्यान के विषय में कहते हैं - . भत्तपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? भत्तपच्चक्खाणेणं अणेगाइं भवसयाई निरंभइ ॥ ४० ॥ भक्तप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? भक्तप्रत्याख्यानेनानेकानि भवशतानि निरुणद्धि ॥ ४० ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! भत्तपच्चक्खाणेणं-भक्तप्रत्याख्यान से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, भत्तपच्चक्खाणेणं-भक्तप्रत्याख्यान से, अणेगाइं-अनेक, भवसयाइं-सैकड़ों जन्मों को, निरंभइ-रोक देता है और अल्पसंसारी हो जाता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान अर्थात् आहार के परित्याग से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-हे भद्र ! भक्त के प्रत्याख्यान से यह जीव सैकड़ों भवों अर्थात् जन्मों का निरोध कर लेता है। टीका-भक्तप्रत्याख्यान अर्थात् अनशनव्रत से-अनशनव्रतरूप तपश्चर्या के द्वारा यह जीव अपने अनेक भवों को कम कर देता है। कारण यह है कि आहार के त्याग से भावों में विशेष दृढ़ता आ जाती है। उससे यह जीव अपने अनेक जन्मों को घटा देता है, अर्थात् उसे जितने जन्म धारण करने थे, उनमें बहुत कमी हो जाती है। यदि संक्षेप में कहें तो अल्पसंसारी होना भक्त-प्रत्याख्यान का फल है। अब सद्भाव-प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में कहते हैं - - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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