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सब्भावपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
सब्भावपच्चक्खाणेणं अणियटिं जणयइ। अणियट्टि पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि कम्मंसे खवेइ। तं जहा-वेयणिज्जं, आउयं, नाम, गोयं। तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ ४१ ॥
सद्भावप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
सद्भावप्रत्याख्यानेनानिवृत्तिं जनयति। अनिवृत्तिं प्रतिपन्नश्चानगारश्चत्वारि कर्मांशानि क्षपयति। तद्यथा-वेदनीयम्, आयुः, नाम, गोत्रम्। तत्पश्चात्सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ॥ ४१ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, सब्भावपच्चक्खाणेणं-सद्भाव के प्रत्याख्यान से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की उपार्जना करता है, सब्भावपच्चक्खाणेणं-सद्भाव के प्रत्याख्यान से, अणियटिं-अनिवृतिरूप शुक्ल-ध्यान के चतुर्थ भेद को, जणयइ-प्राप्त होता है, य-फिर, अणियटिं पडिवन्ने-अनिवृत्तिकरण को प्राप्त हुआ, अणगारे-अनगार, चत्तारि-चार, कम्मसे-कर्मांशों को, खवेइ-क्षय करता है, तं जहा-जैसे कि, वेयणिज्जं-वेदनीयकर्म, आउयं-आयुकर्म, नाम-नामकर्म, गोयं-गोत्रकर्म, तओ पच्छा-तदनन्तर, सिज्झइ-सिद्ध हो जाता है, बुझइ-बुद्ध हो जाता है, मुच्चइ-मुक्त हो जाता है, परिनिव्वायइ-सर्व प्रकार से शान्त हो जाता है, सव्वदुक्खाणं-सर्व प्रकार के दु:खों का, अंतं करेइ-अन्त कर देता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! सद्भाव का प्रत्याख्यान करने से जीव को किस गुण की प्राप्ति हो सकती है?
उत्तर-सद्भाव का प्रत्याख्यान करने से अनिवृत्ति शुक्ल-ध्यान के चतुर्थ भेद की प्राप्ति होती है। अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अनगार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मों का क्षय कर देता है। तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त होकर सर्व दुःखों का नाश करता हुआ परम शांति को प्राप्त हो जाता है। ___टीका-प्रवृत्तिमात्र के परित्याग का नाम सद्भाव-प्रत्याख्यान है। जिस समय किसी भी प्रकार की क्रिया शेष नहीं रह जाती और सर्व प्रकार से संवर-भाव की प्राप्ति हो जाती है, अर्थात् जिस समय यह जीवात्मा चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है, उस समय आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है?' यह शिष्य का प्रश्न है।
इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि उस समय यह जीवात्मा अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है, अर्थात् अनिवृत्तिरूप शुक्ल-ध्यान के चतुर्थ भेद को प्राप्त कर लेता है। जिस स्थान से इस जीवात्मा का फिर पतन नहीं होता, उस स्थान को अनिवृत्ति कहते हैं। चौदहवें गुणस्थान से इस आत्मा का फिर पतन नहीं होता, इसलिए चौदहवें गुणस्थान में पहुंचकर अनिवृत्तिकरण को प्राप्त हुआ जीवात्मा वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार अघाति कर्मों की ग्रंथियों का क्षय कर डालता है। तदनन्तर वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१४०] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं