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पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, गरहणयाएणं - गर्हा से, जीवे जीव, किं जणयइ - किस फल को प्राप्त करता है; गरहणयाएणं गर्हा से, अपुरक्कारं अपुरस्कार को, जणयइ - उत्पन्न करता है, अपुरक्कारगए णं-अपुरस्कार को प्राप्त हुआ, जीवे - जीव, अप्पसत्थेहिंतो - अप्रशस्त, जोगेहिंतो-योगों से, नियत्तेड़ - निवृत्त हो जाता है, य-फिर, पसत्थे - प्रशस्त योगों को, पडिवज्जइ - ग्रहण करता है, पसत्थजोगपडिवन्ने - प्रशस्त योगों को प्राप्त हुआ, य णं- -- पुनः, अणगारे - अनगार, अणतघाइपज्जवेअनन्तघाति-पर्यायों को, खवेइ - क्षय कर देता है।
मूलार्थ - ( प्रश्न ) - हे भदन्त ! आत्म गर्हा करने से जीव किस फल को प्राप्त करता है?
उत्तर - आत्म-गर्दा से यह जीव अपुरस्कार अर्थात् आत्म-नम्रता को प्राप्त करता है। आत्म-नम्रता को प्राप्त हुआ जीव अप्रशस्त योगों से निवृत्त हो जाता है और प्रशस्त योगों को प्राप्त करता है तथा प्रशस्त योगों से युक्त हुआ अनगार- साधु अनन्त घाती - पर्यायों को क्षय कर देता है।
टीका - निन्दा के बाद 'अब गर्हा के फल का वर्णन करते हैं। शिष्य ने पूछा कि भगवन् ! आत्म-गर्दा से किस फल की प्राप्ति होती है ?
तब गुरु ने उत्तर दिया कि " हे शिष्य ! आत्म-गर्हा से आत्म-विनम्रता की प्राप्ति होती है, अर्थात् साधक आत्म- गौरव का परित्याग करके आत्म- लघुता को प्राप्त करता है। आत्म-विनम्रता से वह अशुभ योगों से निवृत्त होकर शुभ योगों को प्राप्त करता है। इस प्रकार शुभ योगों को धारण करने वाला मुनि अनन्त ज्ञान और अनन्त - दर्शन के घातक 'जो ज्ञानावरणीय आदि कर्म-पर्याय हैं उनको क्षय कर देता है। जिसके प्रभाव से उसको मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है।
पर्याय शब्द से यहां पर कर्म-वर्गणाओं का ग्रहण समझना चाहिए तथा 'योग' शब्द से मन, वचन और काया का व्यापार अभिमत है। आलोचना, वास्तव में सामायिक वाले जीवों की ही ठीक होती है। अतः अब सामायिक के विषय में कहते हैं
सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । सामाइएणं सावज्जजोग-विरइं जणयइ ॥ ८ ॥
सामायिकेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? । सामायिकेन सावद्ययोगविरतिं जनयति ॥ ८ ॥
पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, सामाइएणं- सामायिक से, जीवे - जीव, किं जणयइ- क्या फल प्राप्त करता है? सामाइएण - सामायिक से, सावज्जजोग विरइं- सावद्ययोगविरति को, जणयइ - प्राप्त करता है।
मूलार्थ - ( प्रश्न ) - हे भगवन् ! सामायिक करने से जीव किस गुण को प्राप्त
करता है?
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १११] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं